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Class 7 हिंदी व्याकरण  – पर्यायवाची शब्द 

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‘पर्यायवाची शब्द’

‘पर्याय’ का अर्थ है – ‘समान’ तथा ‘वाची’ का अर्थ है – ‘बोले जाने वाले’ अर्थात जिन शब्दों का अर्थ एक जैसा होता है, उन्हें ‘पर्यायवाची शब्द’ कहते हैं।

इसे हम ऐसे भी कह सकते है – जिन शब्दों के अर्थ में समानता हो, उन्हें ‘पर्यायवाची शब्द’ कहते है।

समान अर्थवाले शब्दों को ‘पर्यायवाची शब्द’ या समानार्थक भी कहते है।

जैसे – सूर्य, दिनकर, दिवाकर, रवि, भास्कर, भानु, दिनेश – इन सभी शब्दों का अर्थ है ‘सूरज’।

इस प्रकार ये सभी शब्द ‘सूरज’ के पर्यायवाची शब्द कहलायेंगे।

पर्यायवाची शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या होता है 

पर्यायवाची शब्द दो पदों से मिल कर बना है – पर्याय + वाची।

  • पर्याय का मतलब है – अर्थ
  • वाची का मतलब है  – बताने वाला

अतः पर्यायवाची शब्द से तात्पर्य है – अर्थ बताने वाला। पर्यायवाची शब्दों से हमें एक ही शब्द के लिए प्रयोग होने वाले अन्य शब्दों का पता चलता है। इन सभी सभी शब्दों का एक ही अर्थ होता है।

इसी प्रकार समानार्थक / समानार्थी शब्द भी दो पदों से मिलकर बना है –

समान + अर्थक / समान + अर्थी

  • समान – एक जैसे
  • अर्थक /अर्थी – अर्थ वाले

अतः समानार्थक / समानार्थी का शाब्दिक अर्थ है – एक जैसे अर्थ वाले शब्द।

पर्यायवाची शब्द किसे कहते हैं

पर्यायवाची शब्द की व्याकरणीय परिभाषा

  • किसी शब्द-विशेष के लिए प्रयोग किए जाने वाले समान अर्थ वाले शब्दों को पर्यायवाची शब्द या समानार्थी शब्द कहते हैं।
  • जिन शब्दों के अर्थ में समानता होती हैं, उन्हें पर्यायवाची शब्द या समानार्थक शब्द कहते हैं।

पर्यायवाची शब्द की परिभाषा (सरल शब्दों में)

जिन शब्दों की ध्वनियाँ (या रूप) अलग-अलग होती हैं, लेकिन अर्थ एक जैसे होते हैं, उन्हें पर्यायवाची शब्द या समानार्थक शब्द कहा जाता है। ऐसे शब्द दिखते तो अलग-अलग हैं, लेकिन इनका मतलब एक ही होता है।

पर्यायवाची शब्दों के उदाहरण

(अ)

अतिथि :- मेहमान, अभ्यागत, आगन्तुक, पाहूना।

अमृत :- सुरभोग सुधा, सोम, पीयूष, अमिय, जीवनोदक ।

अग्नि :- आग, ज्वाला, दहन, धनंजय, वैश्वानर, रोहिताश्व, वायुसखा, विभावसु, हुताशन, धूमकेतु, अनल, पावक, वहनि, कृशानु, वह्नि, शिखी।

अनुपम :- अपूर्व, अतुल, अनोखा, अनूठा, अद्वितीय, अदभुत, अनन्य।

अनबन :- मतभेद, वैमनस्य, विरोध, असहमति, झगड़ा, तकरार, विवाद, बखेड़ा, टंटा।

अनमना :- उदास, अन्यमनस्क, उन्मन, विमुख, विरक्त, उदास, गतानुराग, अन्यमनस्क।

(आ) 

आँख :- लोचन, अक्षि, नैन, अम्बक, नयन, नेत्र, चक्षु, दृग, विलोचन, दृष्टि, अक्षि।

आकाश :- नभ, गगन, द्यौ, तारापथ, पुष्कर, अभ्र, अम्बर, व्योम, अनन्त, आसमान, अंतरिक्ष,

आनंद :- हर्ष, सुख, आमोद, मोद, प्रसन्नता, आह्राद, प्रमोद, उल्लास।

आश्रम :- कुटी, स्तर, विहार, मठ, संघ, अखाड़ा ।

आम :- रसाल, आम्र, अतिसौरभ, मादक, अमृतफल, चूत, सहकार, च्युत (आम का पेड़)

आंसू :- नेत्रजल, नयनजल, चक्षुजल, अश्रु।

आत्मा :- जीव, देव, चैतन्य, चेतनतत्तव, अंतःकरण।

(इ)

इंसाफ :- न्याय, फैसला, अद्ल।

इजाजत :- स्वीकृति, मंजूरी, अनुमति।

इज्जत :- मान, प्रतिष्ठा, आदर, आबरू।

इनाम :- पुरस्कार, पारितोषिक, पारितोषित करना, बख्शीश।

इकट्ठा :- समवेत, संयुक्त, समन्वित, एकत्र, संचित, संकलित, संग्रहीत।

(ई)

ईश्वर :- परमपिता, परमात्मा, प्रभु, ईश, जगदीश, भगवान, परमेश्वर, जगदीश्वर, विधाता।

ईख :- गन्ना, ऊख, इक्षु।

ईप्सा :- इच्छा, ख्वाहिश, कामना, अभिलाषा।

ईमानदारी :- सच्चा, सत्यपरायण, नेकनीयत, यथार्थता, सत्यता, निश्छलता, दयानतदारी

ईर्ष्या :- विद्वेष, जलन, कुढ़न, ढाह।

ईसा :- यीशु, ईसामसीह, मसीहा।

(उ)

उपवन :- बाग़, बगीचा, उद्यान, वाटिका, पुष्पोद्यान, फुलवारी, पुष्पवाटिका, गुलिस्तान, चमन

उक्ति :- कथन, वचन, सूक्ति।

उग्र :- प्रचण्ड, उत्कट, तेज, महादेव, तीव्र, विकट।

उचित :- ठीक, मुनासिब, वाज़िब, समुचित, युक्तिसंगत, न्यायसंगत, तर्कसंगत, योग्य।

उच्छृंखल :- उद्दंड, अक्खड़, आवारा, अंडबंड, निरकुंश, मनमर्जी, स्वेच्छाचारी।

उजड्ड :- अशिष्ट, असभ्य, गँवार, जंगली, देहाती, उद्दंड, निरकुंश।

उजला :- उज्ज्वल, श्वेत, सफ़ेद, धवल।

उजाड :- जंगल, बियावान, वन।

उजाला :- प्रकाश, रोशनी, दीप्ति, द्योत, प्रभा, विभा, आलोक, तेज, ओज, चाँदनी।

(ऊ)

ऊँचा :- तुंग, उच्च, बुलंद, उर्ध्व, उत्ताल, उन्नत, ऊपर, शीर्षस्थ, उच्च कोटि का, बढ़िया।

ऊँचाई :- बुलंदी, उठान, उच्चता, तुंगता, बुलन्दी।

ऊँचा करना :- उन्नत करना, उत्थित करना, ऊपर उठाना।

ऊँट :- करभ, उष्ट्र, लंबोष्ठ, साँड़िया।

ऊखल :- ओखली, उलूखल, कूँडी।

ऊसर :- अनुपजाऊ, बंजर, अनुर्वर, वंध्या, भूमि।

(ऋ)

ऋक्ष :- भालू, रीछ, भीलूक, भल्लाट, भल्लूक।

ऋक्षेश :- चंद्रमा, चंदा, चाँद, शशि, राकेश, कलाधर, निशानाथ।

ऋण :- कर्ज, कर्जा, उधार, उधारी।

ऋणी :- कर्जदार, देनदार।

ऋतु :- रुत, मौसम, मासिक धर्म, रज:स्राव।

ऋतुराज :- बहार, मधुमास, वसंत, ऋतुपति, मधुऋतु।

ऋषभ :- वृष, वृषभ, बैल, पुंगव, बलीवर्द, गोनाथ।

(ए)

एकतंत्र :- राजतंत्र, एकछत्र, तानाशाही, अधिनायकतंत्र।

एकदंत :- गणेश, गजानन, विनायक, लंबोदर, विघ्नेश, वक्रतुंड।

एतबार :- विश्वास, यकीन, भरोसा।

एषणा :- इच्छा, आकांक्षा, कामना, अभिलाषा, हसरत।

एहसान :- कृपा, अनुग्रह, उपकार।

एक करना :- एकीकरण करना, सम्मिलित करना, मिलाना, जोड़ना, संघटित करना, संगठन बनाना।

(ऐ)

ऐंठ :- कड़, दंभ, हेकड़ी, ठसक।

ऐबी :- बुरा, खोटा, दुष्ट, अवगुण, गलती, त्रुटि, खामी, खराबी, कमी, अवगुण।

ऐयार :- धूर्त, मक्कार, चालाक।

ऐहिक :- सांसारिक, लौकिक, दुनियावी।

ऐक्य :- एकत्व, एका, एकता, मेल।

ऐश्वर्य :- धन-सम्पत्ति, विभूति, वैभव, समृद्धि, सम्पन्नता, ऋद्धि-सिद्धि।

(ओ)

ओज :- तेज, शक्ति, बल, चमक, कांति, दीप्ति, वीर्य।

ओजस्वी :- बलवान, बलशाली, बलिष्ठ, पराक्रमी, जोरावर, ताकतवर, शक्तिशाली।

ओंठ :- ओष्ठ, अधर, लब, रदनच्छद, होठ।

ओला :- हिमगुलिका, उपल, करका, बिनौरी, तुहिन, जलमूर्तिका, हिमोपल।

(औ)

औचक :- अचानक, यकायक, सहसा।

औरत :- स्त्री, जोरू, घरनी, महिला, मानवी, तिरिया, नारी, वनिता, घरवाली।

औचित्य :- उपयुक्तता, तर्कसंगति, तर्कसंगतता।

औलाद :- संतान, संतति, आसऔलाद, बाल-बच्चे।

औषधालय :- चिकित्सालय, दवाखाना, अस्पताल, हस्पताल, चिकित्सा भवन, शफाखाना।

(क)

कमल :- नलिन, अरविन्द, उत्पल, अम्भोज, तामरस, पुष्कर, महोत्पल, वनज, कंज।

किरण :- गभस्ति, रश्मि, अंशु, अर्चि, गो, कर, मयूख, मरीचि, ज्योति, प्रभा।

कामदेव :- मदन, मनोज, अनंग, आत्मभू, कंदर्प, दर्पक, पंचशर, मनसिज, काम, रतिपति।

(ख)

खाना :- भोज्य सामग्री, खाद्यय वस्तु, आहार, भोजन।

खग :- पक्षी, द्विज, विहग, नभचर, अण्डज, शकुनि, पखेरू।

खंभा :- स्तूप, स्तम्भ, खंभ।

खद्योत :- जुगनू, सोनकिरवा, पटबिजना, भगजोगिनी।

खर :- गधा, गर्दभ, खोता, रासभ, वैशाखनंदन।

खरगोश :- शशक, शशा, खरहा।

(ग)

गणेश :- विनायक, गजानन, गौरीनंदन, मूषकवाहन, गजवदन, विघ्रनाशक, भवानीनन्दन।

गंगा :- देवनदी, मंदाकिनी, भगीरथी, विश्नुपगा, देवपगा, ध्रुवनंदा, सुरसरिता, देवनदी।

गज :- हाथी, हस्ती, मतंग, कूम्भा, मदकल।

गाय :- गौ, धेनु, सुरभि, भद्रा, दोग्धी, रोहिणी।

गृह :- घर, सदन, गेह, भवन, धाम, निकेतन, निवास, आगार, आलय, आवास, मंदिर।

गर्मी :- ताप, ग्रीष्म, ऊष्मा, गरमी, निदाघ।

(घ)

घट :- घड़ा, कलश, कुम्भ, निप।

घर :- आलय, आवास, गेह, गृह, निकेतन, निलय, निवास, भवन, वास, वास-स्थान, शाला, सदन।

घटना :- हादसा, वारदात, वाक्या।

घना :- घन, सघन, घनीभूत, घनघोर, गझिन, घनिष्ठ, गहरा, अविरल।

घपला :- गड़बड़ी, गोलमाल, घोटाला।

घमंड :- दंभ, दर्प, गर्व, गरूर, गुमान, अभिमान, अहंकार।

(च)

चिराग :- दीया, दीपक, दीप, शमा।

चेला :- शागिर्द, शिष्य, विद्यार्थी।

चेहरा :- शक्ल, आनन, मुख, मुखड़ा।

चोरी :- स्तेय, चौर्य, मोष, प्रमोष।

चौकन्ना :- सचेत, सजग, सावधान, जागरूक, चौकस।

चौकीदार :- प्रहरी, पहरेदार, रखवाला।

(छ)

छतरी :- छत्र, छाता, छत्ता।

छली :- छलिया, कपटी, धोखेबाज।

छवि :- शोभा, सौंदर्य, कान्ति, प्रभा।

छानबीन :- जाँच, पूछताछ, खोज, अन्वेषण, शोध, गवेषण।

छँटनी :- कटौती, छँटाई, काट-छाँट।

(ज)

जल :- मेघपुष्प, अमृत, सलिल, वारि, नीर, तोय, अम्बु, उदक, पानी, जीवन, पय, पेय।

जहर :- गरल, कालकूट, माहुर, विष ।

जगत :- संसार, विश्व, जग, जगती, भव, दुनिया, लोक, भुवन।

जंगल :- विपिन, कानन, वन, अरण्य, गहन, कांतार, बीहड़, विटप।

जेवर :- गहना, अलंकार, भूषण, आभरण, मंडल।

ज्योति :- आभा, छवि, द्युति, दीप्ति, प्रभा, भा, रुचि, रोचि।

(झ)

झरना :- उत्स, स्रोत, प्रपात, निर्झर, प्रस्त्रवण।

झण्डा :- ध्वजा, पताका, केतु।

झंझा :- अंधड़, आँधी, बवंडर, झंझावत, तूफान।

झाँसा :- दगा, धोखा, फरेब, ठगी।

झींगुर :- घुरघुरा, झिल्ली, जंजीरा, झिल्लिका।

झंझट :- झमेला, बखेड़ा, पचड़ा, प्रपंच, कलह, झगड़ा-झंझट, बवंडर, बवाल।

झगड़ा :- कलह, तकरार, कहासुनी, वैमत्य, मतभेद, खटपटा, टंटा, लड़ाई, विवाद, विरोध, संघर्ष।

(ट)

टंकार :- टंकोर, ध्वनि, झनकार।

टकराना :- टक्कर खाना, भिड़ना, चोट खाना, लड़ जाना, ठोकर खाना।

टका :- सिक्का, रुपया, धन, द्रव्य।

टक्कर :- ठोकर, मुठभेड़, भिडंत, समाघात, धक्का, संघर्ष, बराबरी, सामना, घाटा, हानि।

टपकना :- चूना, झरना, रिसना, स्रावित होना।

टहलना :- सैर-सपाटा, घूमना, भ्रमण करना, चलना, फिरना।

(ठ)

ठंडा :- शीतल, सर्द, शांत, गम्भीर, सुस्त, मंद, धीमा, उदासीन, भावहीन।

ठगना :- छलना, धोखा देना, चकमा देना, भुलावा, लूटना, लूट लेना, चूना लगाना, ऐंठना।

ठगी :- कपट, मायाजाल, छल, बेईमानी, धोखेबाजी, उचक्कापन, जालासाजी।

ठसक :- नखर, चोंचला, मान, अभिमान, शान, गर्व, घमंड।

ठहरना :- रुकना, थमना, टिकना, विराम, स्थित होना, प्रतीक्षा करना, इंतजार करना।

ठाट :- तड़क-भड़क, शोभा, सजावट, आयोजन, तैयारी, व्यवस्था, प्रबंध, झुंड, दल, समूह।

ठिकाना :- स्थान, जगह, अड्डा, आयोजन, प्रबंध, व्यवस्था।

(ड)

डकारना :- डकार लेना, गरजना, दहाड़ना।

डगमगाना :- डावाँडोल होना, अस्थिर होना, काँपना, हिलना, लड़खड़ाना, थरथराना, विचलित होना।

डफला :- डफ, चंग, खंजरी।

डब्बा :- डिब्बा, ढक्कनदार, बर्तन, केस, कम्पार्टमेन्ट।

डरना :- भयभीत होना, त्रास पाना, आतंकित होना, भय खाना, त्रस्त होना।

डरपोक :- भीरु, भयभीत, त्रस्त, कायर, कापुरुष, आतंकित करना।

(ढ)

ढब :- ढंग, रीति, तरीका, ढर्रा।

ढाँचा :- पंजर, ठठरी।

ढीला-ढाला :- शिथिलता, आलसी, सुस्ती, अतत्परता।

ढिंढोरा :- मुनादी, ढँढोरा, डुगडुगी, डौंड़ी।

ढिग :- समीप, निकट, पास, आसन्न।

(त)

तालाब :- सरोवर, जलाशय, सर, पुष्कर, ह्रद, पद्याकर , पोखरा, जलवान, सरसी, तड़ाग।

तोता :- सुग्गा, शुक, सुआ, कीर, रक्ततुण्ड, दाड़िमप्रिय।

तरुवर :- वृक्ष, पेड़, द्रुम, तरु, विटप, रूंख, पादप।

तलवार :- असि, कृपाण, करवाल, खड्ग, शमशीर चन्द्रहास।

तरकस :- तूण, तूणीर, त्रोण, निषंग, इषुधी।

(थ)

थोड़ा :- अल्प, न्यून, जरा, कम।

थाती :- जमापूँजी, धरोहर, अमानत।

थाक :- ढेर, समूह।

थप्पड़ :- तमाचा, झापड़।

थकान :- थकावट, श्रांति, थकन, परिश्रांति, क्लांति।

थल :- स्थान, स्थल, भूमि, धरती, जमीन, जगह।

(द)

दूध :- दुग्ध, दोहज, पीयूष, क्षीर, पय, गौरस, स्तन्य।

दास :- नौकर, चाकर, सेवक, परिचारक, अनुचर, भृत्य, किंकर।

दासी :- परिचारिका, अनुचरी, बाँदी, नौकरानी।

देवता :- सुर, देव, अमर, वसु, आदित्य, निर्जर, त्रिदश, गीर्वाण, अदितिनंदन, अमर्त्य, अस्वप्न।

(ध)

धन :- दौलत, संपत्ति, सम्पदा, वित्त।

धरती :- धरा, धरती, वसुधा, ज़मीन, पृथ्वी, भू, भूमि, धरणी, वसुंधरा, अचला, मही।

धंधा :- आजीविका, उद्योग, कामधंधा, व्यवसाय।

धनंजय :- अर्जुन, सव्यसाची, पार्थ, गुड़ाकेश, बृहन्नला।

धनु :- धनुष, पिनाक, शरासन, कोदंड, कमान, धनुही।

(न)

नदी :- तनूजा, सरित, शौवालिनी, स्रोतस्विनी, आपगा, निम्रगा, कूलंकषा, तटिनी, सरि, सारंग, जयमाला, तरंगिणी, दरिया, निर्झरिणी।

नौका :- नाव, तरिणी, जलयान, जलपात्र, तरी, बेड़ा, डोंगी, तरी, पतंग।

नाग :- विषधर, भुजंग, अहि, उरग, काकोदर, फणीश, सारंग, व्याल, सर्प, साँप।

नर्क :- यमलोक, यमपुर, नरक, यमालय।

(प)

पुत्र :- बेटा, लड़का, आत्मज, सुत, वत्स, तनुज, तनय, नंदन।

पुत्री :- बेटी, आत्मजा, तनूजा, दुहिता, नन्दिनी, लड़की, सुता, तनया।

पृथ्वी :- धरा, धरती, भू, धरित्री, धरणी, अवनि, मेदिनी, मही, वसुंधरा, वसुधा, जमीन, भूमि।

पुष्प :- फूल, सुमन, कुसुम, मंजरी, प्रसून, पुहुप।

पानी :- जल, नीर, सलिल, अंबु, अंभ, उदक, तोय, जीवन, वारि, पय, अमृत, मेघपुष्प, सारंग।

परिवार :- कुटुंब, कुनबा, खानदान, घराना।

परिवर्तन :- बदलाव, हेरफेर, तबदीली, फेरबदल।

(फ)

फल :- फलम, बीजकोश।

फ़ख :- गौरव, नाज, गर्व, अभिमान।

फजर :- भोर, सवेरा, प्रभात, सहर, सकार।

फतह :- सफलता, विजय, जीत, जफर।

फरमान :- हुक्म, राजादेश, राजाज्ञा।

फलक :- आसमान, आकाश, गगन, नभ, व्योम।

फसल :- शस्य, पैदावार, उपज, खिरमन, कृषि- उत्पाद।

(ब)

बाण :- सर, तीर, सायक, विशिख, आशुग, इषु, शिलीमुख, नाराच।

बिजली :- घनप्रिया, इन्द्र्वज्र, चंचला, सौदामनी, चपला, बीजुरी, क्षणप्रभा।

ब्रह्मा :- विधि, विधाता, स्वयंभू, प्रजापति, आत्मभू, लोकेश, पितामह, चतुरानन, विरंचि।

बहुत :- अनेक, अतीव, अति, बहुल, भूरि, बहु, प्रचुर, अपरिमित, प्रभूत, अपार।

बादल :- मेघ, घन, जलधर, जलद, वारिद, नीरद, सारंग, पयोद, पयोधर।

(भ)

भौंरा :- अलि, मधुव्रत, शिलीमुख, मधुप, मधुकर, द्विरेप, षट्पद, भृंग, भ्रमर।

भोजन :- खाना, भोज्य सामग्री, खाद्यय वस्तु, आहार।

भय :- भीति, डर, विभीषिका।

भाई :- तात, अनुज, अग्रज, भ्राता, भ्रातृ।

भंवरा :- भौंरा, भ्रमर, मधुकर, मधुप, मिलिंद, अलि, अलिंद, भृंग।

भक्त :- आराधक, अर्चक, पुजारी, उपासक, पूजक।

(म)

मछली :- मीन, मत्स्य, झख, झष, जलजीवन, शफरी, मकर।

महादेव :- शम्भु, ईश, पशुपति, शिव, महेश्र्वर, शंकर, चन्द्रशेखर, भव, भूतेश।

मेघ :- घन, जलधर, वारिद, बादल, नीरद, वारिधर, पयोद, अम्बुद, पयोधर।

मुनि :- यती, अवधूत, संन्यासी, वैरागी, तापस, सन्त, भिक्षु, महात्मा, साधु, मुक्तपुरुष।

मित्र :- सखा, सहचर, स्नेही, स्वजन, सुहृदय, साथी, दोस्त।

मोर :- केक, कलापी, नीलकंठ, शिखावल, सारंग, ध्वजी, शिखी, मयूर, नर्तकप्रिय।

(य)

यम :- सूर्यपुत्र, जीवितेश, श्राद्धदेव, कृतांत, अन्तक, धर्मराज, दण्डधर, कीनाश, यमराज।

यमुना :- कालिन्दी, सूर्यसुता, रवितनया, तरणि-तनूजा, तरणिजा, अर्कजा, भानुजा।

यंत्रणा :- व्यथा, तकलीफ, वेदना, यातना, पीड़ा।

यकीन :- भरोसा, ऐतबार, आस्था, विश्वास।

यज्ञोपवीत :- जनेऊ, उपवीत, ब्रह्मसूत्र।

यतीम :- बेसहारा, अनाथ, माँ-बापविहीन।

यशस्वी :- मशहूर, विख्यात, नामवर, कीर्तिवान, ख्यातिवान।

(र)

रात्रि :- निशा, क्षया, रैन, रात, यामिनी, रजनी, त्रियामा, क्षणदा, शर्वरी, तमस्विनी।

रात :- रात्रि, रैन, रजनी, निशा, यामिनी, तमी, निशि, यामा, विभावरी।

राजा :- नृपति, भूपति, नरपति, नृप, महीप, राव, सम्राट, भूप, भूपाल, नरेश।

रवि :- सूरज, दिनकर, प्रभाकर, दिवाकर, सविता, भानु, दिनेश, अंशुमाली, सूर्य।

रामचन्द्र :- अवधेश, सीतापति, राघव, रघुपति, रघुवर, रघुनाथ, रघुराज, रघुवीर।

रावण :- दशानन, लंकेश, लंकापति, दशशीश, दशकंध, दैत्येन्द्र।

रक्त :- खून, लहू, रुधिर, शोणित, लोहित।

(ल)

लक्ष्मी :- चंचला, कमला, पद्मा, रमा, हरिप्रिया, श्री, इंदिरा, पद्ममा, सिन्धुसुता, कमलासना।

लड़का :- बालक, शिशु, सुत, किशोर, कुमार।

लड़की :- बालिका, कुमारी, सुता, किशोरी, बाला, कन्या।

लक्ष्मण :- लखन, शेषावतार, सौमित्र, रामानुज, शेष।

लता :- बल्लरी, बल्ली, लतिका, बेली।

लंघन :- उपवास, व्रत, रोजा, निराहार।

(व)

वृक्ष :- तरू, अगम, पेड़, पादप, विटप, गाछ, दरख्त, शाखी, विटप, द्रुम।

विवाह :- शादी, गठबंधन, परिणय, व्याह, पाणिग्रहण।

वायु :- हवा, पवन, समीर, अनिल, वात, मारुत।

वसन :- अम्बर, वस्त्र, परिधान, पट, चीर।

विधवा :- अनाथा, पतिहीना।

विष :- ज़हर, हलाहल, गरल, कालकूट।

विश्व :- जगत, जग, भव, संसार, लोक, दुनिया।

वारिश :- वर्षण, वृष्टि, वर्षा, पावस, बरसात।

(श)

शेर :- हरि, मृगराज, व्याघ्र, मृगेन्द्र, केहरि, केशरी, वनराज, सिंह, शार्दूल, हरि, मृगराज।

शिव :- भोलेनाथ, शम्भू, त्रिलोचन, महादेव, नीलकंठ, शंकर।

शत्रु :- रिपु, दुश्मन, अमित्र, वैरी, प्रतिपक्षी, अरि, विपक्षी, अराति।

शिक्षक :- गुरु, अध्यापक, आचार्य, उपाध्याय।

शेषनाग :- अहि, नाग, भुजंग, व्याल, उरग, पन्नग, फणीश, सारंग।

(ष)

षंजन :- आर्लिगन, मिलन।

षंडाली :- तालाब, ताल।

षड्यंत्र :- साजिश, कुचक्र, कूट-योजना।

षडानन :- षटमुख, कार्तिकेय, षाण्मातुर।

(स)

समुद्र :- सागर, पयोधि, उदधि, पारावार, नदीश, नीरनिधि, अर्णव, पयोनिधि, अब्धि, वारीश, जलधाम, नीरधि, जलधि, सिंधु, रत्नाकर, वारिधि।

समूह :- दल, झुंड, समुदाय, टोली, जत्था, मण्डली, वृंद, गण, पुंज, संघ, समुच्चय।

सुमन :- कुसुम, मंजरी, प्रसून, पुष्प, फूल ।

सीता :- वैदेही, जानकी, भूमिजा, जनकतनया, जनकनन्दिनी, रामप्रिया।

सर्प :- साँप, अहि, भुजंग, ब्याल, फणी, पत्रग, नाग, विषधर, उरग, पवनासन।

(ह)

हंगामा :- कोलाहल, अशांति, शोरगुल, हल्ला, शोर 2. उत्पात, उपद्रव, हुड़दंग।

हँसमुख :- आनंदित, उल्लसित, मगन, प्रसन्नचित्त, खुशमिजाज।

हँसी :- मुस्कान, मुस्कारहट, ठहाका, खिलखिलाहट, मजाक, दिल्लगी, खिल्ली।

हत्या :- वध, हिंसा, कत्ल, खून।

हत्यारा :- हिंसक, खूनी, जीवघाती, कातिल, घातक।

Class 7 हिन्दी व्याकरण – पत्र लेखन

पत्र लेखन की परिभाषा ।

पत्र लेखन का अर्थ – कागज के माध्यम से समाचारो का आदान प्रदान करना ही पत्र लेखन कहलाता है। प्राचीन समय में पत्र लेखन का प्रचलन बहुत अधिक था, फिर चाहे पत्र औपचारिक हो या अनौपचारिक दोनों ही स्तिथी में कागज में लिखे जाने वाले पत्रों का उपयोग किया जाता था। 

परन्तु आज समय की आधुनिकता के साथ साथ सभी चीज़ो का आधुनिकरण हो रहा है। अब लोग अनौपचारिक पत्रों के लिए मोबाइल, टेलीफ़ोन, टेलीग्राम आदि का इस्तेमाल करने लगे है, लेकिन आज भी औपचारिक पत्र तो कागज के माध्यम से ही पहुंचाए जा रहे है। इसलिए आइये पत्र लेखन क्या है?, पत्र लेखन किसे कहते हैं इसे विस्तार में समझते है।

पत्र लेखन का इतिहास।

पत्र लेखन की विधा बहुत ही पुरानी है। परंतु यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि पत्र लेखन का प्रारंभ कब हुआ कहां से हुआ और कैसे हुआ? किसने पहली बार पहली बार पत्र, कब कैसे और क्यों लिखा? 

इन कठिन प्रश्नों का उत्तर आज तक इतिहास में कहीं भी देखने को नहीं मिला फिर भी इतना कह सकते हैं कि जब से हमारा मानव जीवन आरंभ हुआ है और हमने लिखना सीखा है तब से ही पत्र लेखन प्रारंभ हो गया था।

पत्र लेखन से क्या अभिप्राय है।

आज हमारे इतिहास के माध्यम से पता चलता है कि भाषा वैज्ञानिकों का कहना है कि अपने मन की बात को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए हम जिस लिपि का प्रयोग करते थे वह चित्र लिपि होती थी। आज हम भली भांति जानते हैं कि किसी भी तरह के लेखन का इतिहास चित्रलिपि से ही प्रारंभ होता है।चित्र लिपि के अंतर्गत किसी अन्य लिपियों का भी विकास हुआ है जो निम्न है- सूत्र लिपि,प्रतीकात्मक लिपि, भाग मूलक, ध्वनिमुलक लिपि। चित्र लिपि एवं भाव मूलक लिपि के प्राचीन प्रमाण आज भी हमारे इतिहास में उपलब्ध है परंतु यह अत्यधिक प्राचीन नहीं है लेकिन स्पष्ट है कि विभिन्न खोजकर्ताओं की खोज से लेखन का प्रारंभ चित्र लिपि एवं भाग लिपि से ही हुआ है।

हम सभी इस जानते हैं कि पत्र लेखन एक सबसे महत्वपूर्ण एवं उपयोगी कला में से है और हम यह भी जानते हैं कि पत्र के उपयोग के बिना हमारे कार्य भी पूर्ण नहीं होते। हम दूर बैठे हुए संबंधी, मित्र को अपने मन की बात पत्र के द्वारा ही लिखकर पहुंचाते हैं। आधुनिक पत्र लेखन अर्थात पत्राचार शिष्टाचार का एक मुलक बन गया है। साहित्य के प्रमुख क्षेत्रों में आज पत्र लेखन भी पत्र साहित्य का रूप धारण किए हुए है।अब हम सभी देखते हैं कि पत्र लेखन ना केवल संप्रेषण अपितु प्रभावशाली कला सुंदर रूप बन गया है।

पत्रों के प्रकार।

पत्र लेखन के मुख्यतः दो प्रकार होते है।

  • औपचारिक पत्र लेखन – 
  • अनौपचारिक पत्र लेखन – 

हम पत्र तो लिखना जानते है लेकिन यह समझना थोड़ा मुश्किल हो जाता है कि आखिर पत्र औपचारिक है या अनोपचारिक। बस यही समस्या का समाधान करने के लिए आज हम इन दोनों प्रकारो को विस्तार से समझेंगे।

औपचारिक पत्र लेखन।

ऐसे पत्र जिसे किसी सरकारी, अर्धसरकारी विभाग अथवा व्यवसायिक क्षेत्रों में लिखा जाता है उन पत्रों को औपचारिक पत्र कहा जाता है। औपचारीक पत्रों को लिखते समय बहुत ही सावधानी बरतनी पड़ती है क्योकि इस तरह के पत्रों की भाषा शैली भी औपचारिक ही होती है। ये निश्यित स्वरुप के सांचे में ढले हुए होते है। इन पत्रों के अंतर्गत शिकायत पत्र,निमंत्रण पत्र, सुझाव पत्र आते है।

औपचारिक पत्र लेखन कला को सरलता से सीखने के लिए आपको यह जानना बहुत आवश्यक है

अनौपचारीक पत्र लेखन

ऐसे पत्र जिन्हे लिखते समय सोच विचार करने की आवश्यकता न हो बल्कि अपनी सरल भाषा शैली का प्रयोग किया जाए उसे अनौपचारिक पत्र कहा जाता है। अनौपचारिक पत्र सबंध परक होते है ये पत्र परिवार, रिश्तेदार अथवा मित्र को लिखे जाते है। अनौपचारिक पत्रों का विषय हमेशा घरेलु एवं व्यक्तिगत होता है इसीलिए इन पत्रों को व्यक्तिगत पत्र भी कहा जाता है।  

पत्र लेखन की विशेषताएं।

पत्र लेखन की जितनी विशेषताएं लिखी जाए उतनी ही कम है क्योकि पत्र लेखन एक कला है। और किसी भी कला की विशेषताए कभी काम नहीं होती।

  • क्रमबद्धता पर ध्यान दिया जाता है।
  • भाषा की संछिप्तता होती है।
  • भाषा स्पष्ट एवं प्रचलित शब्दों से परिपूर्ण होती है।
  • प्रभावपूर्ण शैली का प्रयोग किया जाता है।
  • पत्रों का लेखन उद्देश्यपूर्ण होता है।
  • पाठक की हर जिज्ञासाओं का समाधान मिलता है। 

पत्र लेखन करते समय हमें किन बातो को ध्यान में रखना चाहिए

आइये अब हम यहाँ जानेंगे की पत्र लेखन करते समय हम ऐसी कोन – कोन सी बात को ध्यान में रखे जिससे हमारे द्वारा लिखे गए पत्र में कोई गलती न हो और पढ़ने वाले को भी पत्र का सार समाझ आ जाये।

  • सर्वप्रथम हमे जिस विषय में पत्र लिखना है उसका विषय स्पष्ट होना चाहिए।
  • पत्र की भाषा शैली आदरयुक्त सरल तथा मधुर होनी चाहिए।
  • काम शब्दों का प्रयोग कर उसे अधिक समझाने की युक्ति आनी चाहिए।
  • पत्र का प्रारंभिक भाग में पत्र लेखक का नाम,प्राप्तकर्ता का नाम,पता,दिनांक लिखने का ध्यान रखना अति आवश्यक है।
  • पत्र के अंतिम चरण में पहुंचने पर पत्र का सार स्पष्ट रूप से समाझ आना आवश्यक है।

पत्र लेखन करते समय लेखक को निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है जैसे कि आकार, भाषा, क्रम, शिष्टता, कागज, लिखावट।

आकार – बच्चों का आकार हमेशा छोटा अर्थात संछिप्त होना चाहिए। क्योंकि संक्षिप्त लिखावट वाले पत्र अच्छे पत्र के श्रेणी में आते हैं।

भाषा – पत्र लेखन करते समय भाषा एकदम सरल और भावपूर्ण होनी चाहिए ताकि पाठक को करते समय किसी तरह का मन में कोई भी संदेश ना रहे छोटे वाक्यों को लिए हुए विराम चिन्ह का ध्यान रखते हुए लिखा गया पत्र भाषा शैली में चार चांद लगा देता है।

क्रम – किसी भी लेखन को लिखते समय हम उसके क्रम का ध्यान रखते हैं उसी तरह पत्रिका लेखन करते समय क्रम का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक होता है क्रम में बंधी हुई चीजें समझने में आसान होती हैं एवं पाठक को पत्र पढ़ने में उत्साह की अनुभूति होती है। पत्र लेखन करते समय क्रम का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है।

शिष्टता – अच्छे पत्र की विशेषताएं होती है कि वहसिंबू पत्र लेखन व्यक्ति की अभिव्यक्ति को प्रदर्शित करता है उसके चरित्र को दर्शाता है इसीलिए पत्र में लेखन में शिष्टता होना आवश्यक है।

काग़ज़ – पत्र लेखन के लिए सर्वप्रथम हमारे पास अच्छे गुणवत्ता वाले कागज का होना अनिवार्य है।

लिखावट – लेखन करता की लिखावट से स्पष्ट होता है कि पत्र कैसा है लिखावट के अनुरूप ही अच्छे पत्र की श्रेणी वर्गीकृत किया जाता है।

Class 7 हिन्दी व्याकरण – निबंध लेखन

निबंध लेखन की परिभाषा

  • अपने विचारों और भावों को जब हम नियंत्रण ढंग से लिखते हैं वह निबंध के रूप में जाना जाता है ‌
  • किसी भी विषय पर अपने भावों के अनुसार हम लिपि बंद करते हैं वह निबंध लेखन कहा जाता है।
  • नि + बंद यह दो शब्द को मिलाकर निबंध शब्द का निर्माण होता है।
  • इसका अर्थ यह होता है कि भली प्रकार से बांधी गई रचना जो विचार पूर्वक लिखा होना निबंध कहलाता है।

निबंध लेखन में अलग-अलग प्रकार के विषय

उस विषय पर लिखा जाता है जिसे हम सुनते रहते हैं,  देखते हैं और पढ़ते हैं । उदाहरण:

  • धार्मिक त्योहार
  • राष्ट्रीय त्योहार
  • मौसम
  • अलग-अलग प्रकार की समस्याएं, आदि

किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है। अभी के समय में सामाजिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक आदि विषयों पर निबंध ज्यादा लिखा जाता है।

निबंध लेखन: निबंध कैसे लिखें?

निबंध के 4 अंग होते हैं

निबंध लेखन में हमें चार अंगो को निबंध का हिस्सा बनाना आवश्यक है 

  1. शीर्षक : निबंध  में हमेशा शीर्षक आकर्षक होना ज़रूरी है। शीर्षक पढ़ने से लोगों में उत्सुकता बढ़ती है।
  2. प्रस्तावना: निबंध में सबसे श्रेष्ठ प्रस्तावना होती है, भूमिका नाम से भी इसे जाना जाता है । निबंध की शुरुआत में हमें किसी भी प्रकार की स्तुति , श्लोक या उदाहरण से करते हैं तो उसका अलग ही प्रभाव पड़ता है। 
  3. विषय विस्तार – निबंध में विषय विस्तार का सर्व प्रमुख अंश होता है, इसके अंदर तीन से चार अनुच्छेदों को अलग-अलग पहलुओं पर विचार प्रकट किया जा सकता है। निबंध लेखन में इसका संतुलन होना बहुत ही आवश्यक है। विषय विस्तार में निबंध कार अपने दृष्टिकोण को प्रकट करते हुए बता सकता है ‌ । 
  4. उप संहार – उप संहार को निबंध  में सबसे अंत में लिखा जाता है। पूरे निबंध में लिखी गई बातों को हम एक छोटे से अनुच्छेद में बता सकते हैं। इसके अंदर हम संदेश ,  उपदेश , विचारों या कविता की पंक्ति के माध्यम से भी निबंध को समाप्त कर सकते हैं ‌।

निबंध के प्रकार

निबंध तीन प्रकार के होते हैं। 

  1. वर्णनात्मक – संजीव या निर्जीव पदार्थ के बारे में जब हम निबंध लेखन करते हैं तब उसे वर्णनात्मक निबंध कहते हैं। यह निबंध लेखन स्थान , परिस्थिति , व्यक्ति आदि के आधार पर निबंध लिखा जाता है । 
  • प्राणी
  • श्रेणी
  • प्राप्ति स्थान
  • आकार प्रकार
  • स्वभाव 
  • विचित्रता
  • उपसंहार
  • मनुष्य
  • परिचय
  • प्राचीन इतिहास 
  • वंश परंपरा 
  • भाषा और धर्म 
  • सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन
  • स्थान
  • अवस्थिति
  • नामकरण
  • इतिहास
  • जलवायु
  • शिल्प
  • व्यापार
  • जाति धर्म
  • दर्शनीय स्थान
  • उपसंहार
  1. विवरणात्मक – ऐतिहासिक , पौराणिक या फिर आकस्मिक घटनाओं पर जब हम निबंध लेखन करते हैं उसे विवरणात्मक निबंध कहते हैं । यह निबंध लेखन यात्रा , मैच , ऋतु आदि पर लिख सकते हैं।
  • ऐतिहासिक
  • घटना का समय और स्थान
  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
  • कारण और फलाफल
  • इष्ट अनिष्ट और मंतव्य 
  • आकस्मिक घटना
  • परिचय
  • तारीख, स्थान और कारण
  • विवरण और अंत
  • फलाफल
  • व्यक्ति और समाज
  • कैसा प्रभाव हुआ
  • विचारात्मक
  1. विचारात्मक निबंध: जब गुण , दोष या धर्म आदि पर निबंध लेखन किया जाता है उसे विचारात्मक निबंध कहते हैं या निबंध में किसी भी प्रकार की देखी गई या सुनी गई बातों का वर्णन नहीं किया जाए तो विचारात्मक निबंध कहलाता है। इसमें केवल कल्पना और चिंतन शक्ति की गई बातें लिख सकते हैं।
  • अर्थ, परिभाषा ,भूमिका
  • सार्वजनिक या सामाजिक ,स्वाभाविक ,कारण
  • तुलना 
  • हानि और लाभ
  • प्रमाण
  • उप संहार

निबंध लिखते समय नीचे गई बातों को ध्यान में रखें

  • निबंध  में विषय पर पूरा ज्ञान होना चाहिए।
  • अलग-अलग प्रकार के अनुच्छेद को एक दूसरे के साथ जुड़े होना चाहिए।
  • निबंध की भाषा सरल होनी अनिवार्य है।
  • निबंध लिखे गए विषय की जितनी हो सके उतनी जानकारी प्राप्त करें।
  • निबंध में स्वच्छता और विराम चिन्हों पर खास ध्यान दें।
  • निबंध में मुहावरों का प्रयोग होना जरूरी है।
  • निबंध में छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग करें।
  • निबंध के आरंभ में और अंत में कविता की पंक्तियों का भी उल्लेख कर सकते हैं।

स्वच्छ भारत अभियान पर निबंध

अपने प्रधानमंत्री बनने के बाद माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी ने गांधी जयंती के अवसर पर 02 अक्टूबर 2014, को इस अभियान का आगाज़ किया था। भारत को स्वच्छ करने की परिवर्तन कारी मुहिम चलाई थी। भारत को साफ-सुथरा देखना गांधी जी का सपना था। गांधी जी हमेशा लोगों को अपने आस-पास साफ-सफाई रखने को बोलते थे। स्वच्छ भारत के माध्यम से विशेषकर ग्रामीण अँचल के लोगो के अंदर जागरूकता पैदा करना है कि वो शौचालयों का प्रयोग करें, खुले में न जाये। इससे तमाम बीमारियाँ भी फैलती है। जोकि किसी के लिए अच्छा नहीं है।

“जो परिवर्तन आप दुनिया में देखना चाहते हैं वह सबसे पहले अपने आप में लागू करें।” -महात्मा गांधी।

महात्मा गांधी जी की ये बात स्वच्छता पर भी लागू होती है। अगर हम समाज में बदलाव देखना चाहते हैं तो सर्वप्रथम हमें स्वयं में बदलाव लाना होगा। हर कोई दूसरों की राह तकता रहता है। और पहले आप-पहले आप में गाड़ी छूट जाती है। साफ-सफाई से हमारा तन-मन दोनों स्वस्थ और सुरक्षित रहता है। यह हमें किसी और के लिए नहीं, वरन् खुद के लिए करना है। यह जागरूकता जन-जन तक पहुँचानी होगी। हमें इसके लिए ज़मीनी स्तर से लगकर काम करना होगा। हमें बचपन से ही बच्चों में सफाई की आदत डलवानी होगी। उन्हें सिखाना होगा कि, एक कुत्ता भी जहां बैठता है, उस जगह को झाड़-पोछ कर बैठता है। जब जानवरों में साफ-सफाई के प्रति इतनी जागरुकता है, फिर हम तो इन्सान है।

निष्कर्ष

गांधी जी की 145 वीं जयंती को शुरू हुआ यह अभियान, 2 अक्टूबर 2019 को पूरे पाँच वर्ष पूरे कर चुका है। जैसा कि 2019 तक भारत को पूर्ण रूप से ओपन डेफिकेसन फ्री (खुले में शौच मुक्त) बनाने का लक्ष्य रखा गया था। यह लक्ष्य पूर्णतः फलीभूत तो नहीं हुआ, परंतु इसके आँकड़ो में आश्चर्यजनक रूप से उछाल आया है।

दिवाली पर निबंध

दीपावली का अर्थ: दिवाली जिसे “दीपावली” के नाम से भी जाना जाता है, भारत और दुनिया भर में रहने वाले हिंदुओं के सबसे पवित्र त्योहारों में से एक है। ‘दीपावली’ संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है – दीप + आवली। ‘दीप’ का अर्थ होता है ‘दीपक’ तथा ‘आवली’ का अर्थ होता है ‘श्रृंखला’, जिसका मतलब हुआ दीपों की श्रृंखला या दीपों की पंक्ति। दीपावली का त्योहार कार्तिक मास के अमावस्या के दिन मनाया जाता है। यह त्योहार दुनिया भर के लोगों द्वारा बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। हालांकि इसे हिंदू त्योहार माना जाता है, लेकिन विभिन्न समुदायों के लोग भी पटाखे और आतिशबाजी के जरिए इस उज्ज्वल त्योहार को मनाते हैं।

दीपावली त्योहार की तैयारी: दीपावली त्योहार की तैयारियां दिवाली से कई दिनों पहले ही आरंभ हो जाती है। दीपावली के कई दिनों पहले से ही लोग अपने घरों की साफ-सफाई करने में जुट जाते हैं क्योंकि ऐसी मान्यता है कि जो घर साफ-सुथरे होते हैं, उन घरों में दिवाली के दिन माँ लक्ष्मी विराजमान होती हैं और अपना आशीर्वाद प्रदान करके वहां सुख-समृद्धि में बढ़ोत्तरी करती है। दिवाली के नजदीक आते ही लोग अपने घरों को दीपक और तरह-तरह के लाइट से सजाना शुरू कर देते हैं।

दिवाली में पटाखों का महत्व: दिवाली को “रोशनी का त्योहार” कहा जाता है। लोग मिट्टी के बने दीपक जलाते हैं और अपने घरों को विभिन्न रंगों और आकारों की रोशनी से सजाते हैं, जिसे देखकर कोई भी मंत्रमुग्ध हो सकता है। बच्चों को पटाखे जलाना और विभिन्न तरह के आतिशबाजी जैसे फुलझड़ियां, रॉकेट, फव्वारे, चक्री आदि बहुत पसंद होते हैं।

दिवाली का इतिहास: हिंदुओं के मुताबिक, दिवाली के दिन ही भगवान राम 14 वर्षों के वनवास के बाद अपनी पत्नी सीता, भाई लक्ष्मण और उनके उत्साही भक्त हनुमान के साथ अयोध्या लौटे थे, अमावस्या की रात होने के कारण दिवाली के दिन काफी अंधेरा होता है, जिस वजह से उस दिन पुरे अयोध्या को दीपों और फूलों से श्री राम चंद्र के लिए सजाया गया था ताकि भगवान राम के आगमन में कोई परेशानी न हो, तब से लेकर आज तक इसे दीपों का त्योहार और अंधेरे पर प्रकाश की जीत के रूप में मनाया जाता है।

इस शुभ अवसर पर, बाजारों में गणेश जी, लक्ष्मी जी, राम जी आदि की मूर्तियों की खरीदारी की जाती है। बाजारों में खूब चहल पहल होती है। लोग इस अवसर पर नए कपड़े, बर्तन, मिठाइयां आदि खरीदते है। हिंदुओं द्वारा देवी लक्ष्मी की पूजा की जाती है क्योंकि व्यापारी दिवाली पर नई खाता बही की शुरुआत करते हैं। साथ ही, लोगों का मानना है कि यह खूबसूरत त्योहार सभी के लिए धन, समृद्धि और सफलता लाता है। लोग दिवाली के त्योहार के दौरान अपने परिवार, दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ उपहारों का आदान-प्रदान करने के लिए तत्पर रहते हैं।

दीपवाली से जुड़ी सामाजिक कुरीतियां

दिवाली जैसे धार्मिक महत्व वाले पर्व को भी कुछ असामाजिक तत्व अपने निरंतर प्रयास जैसे मदिरापान, जुआ खेलना, टोना-टोटका करना और पटाखों के गलत इस्तेमाल से ख़राब करने में जुटे रहते हैं। अगर समाज में दिवाली के दिन इन कुरीतियों को दूर रखा जाए तो दिवाली का पर्व वास्तव में शुभ दीपावली हो जाएगा।

उपसंहार

दीपावली अपने अंदर के अंधकार को मिटा कर समूचे वातावरण को प्रकाशमय बनाने का त्योहार है। बच्चे अपनी इच्छानुसार बम, फुलझड़ियाँ तथा अन्य पटाखे खरीदते हैं और आतिशबाजी का आनंद उठाते हैं। हमें इस बात को समझना होगा कि दीपावली के त्योहार का अर्थ दीप, प्रेम और सुख-समृद्धि से है। इसलिए पटाखों का इस्तेमाल सावधानी पूर्वक और अपने बड़ों के सामने रहकर करना चाहिए। दिवाली का त्योहार हमें हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। दीपावली का त्योहार सांस्कृतिक और सामाजिक सद्भाव का प्रतीक है। इस त्योहार के कारण लोगों में आज भी सामाजिक एकता बनी हुई है। हिंदी साहित्यकार गोपालदास नीरज ने भी कहा है, “जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।” इसलिए दीपोत्सव यानि दीपावली पर प्रेम और सौहार्द को बढ़ावा देने के प्रयत्न करने चाहिए।

निबंध लेखन कैसे लिखते हैं?

  • भाषा सरल और स्पष्ट होनी चाहिए।
  • शब्द सीमा का ध्यान रखना चाहिए।
  • विचारों की पुनरावृत्ति से बचना चाहिए।
  • लिखने के बाद उसे पढ़िए,उसमें आवश्यक सुधार कीजिए।
  • भाषा संबंधी त्रुटियाँ दूर कीजिए।
  • वर्तनी शुद्ध होनी चाहिए।
  • विराम-चिह्नों का उचित प्रयोग किया जाना चाहिए।

निबंध में कितने भाग होते हैं?

निबंध कैसे लिखते हैं? यह भी एक कला है, और निबंध के मुख्यतः तीन भाग होते हैं: प्रस्तावना, विषय प्रतिपादन और उपसंहार।

निबंध की रूपरेखा कैसे लिखते हैं?

रूपरेखा संक्षिप्त और सरल हो। यह आवश्यक नहीं है कि यह पूर्णतः सुसंस्कृत लेखन हो; इसे बस मुद्दा समझाने योग्य होना है। जब आप अपने विषय पर अधिक शोध करते हैं और अपने लेखन को मुद्दे पर केन्द्रित कर संकुचित करते जाते हैं तब अप्रासंगिक सूचनाओं को हटाने में संकोच न करें। रूपरेखाओं को याद दिलाने के साधन के रूप में प्रयोग करें।

निबंध लिखने की शुरुआत कैसे करें?

  • निबंध लेखन के पूर्व विषय पर विचार कर सकते हैं-
  • भाषा सरल और स्पष्ट होनी चाहिए।
  • विचारों को क्रमबद्ध रूप से स्पष्ट करना चाहिए।
  • विचारों की पुनरावृत्ति से बचना चाहिए।
  • लिखने के बाद उसे पढ़िए, उसमें आवश्यक सुधार कीजिए।
  • भाषा संबंधी त्रुटियां दूर कीजिए।

Class 7 हिंदी व्याकरण  – क्रिया 

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क्रिया

हिंदी व्याकरण में चार विकारी शब्द होते हैं संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया। क्रिया को अंग्रेजी में Action Word कहते है। क्रिया का अर्थ होता है करना। जो भी काम हम करते है, वो क्रिया कहलाती है।

क्रिया की परिभाषा

जिस शब्द के द्वारा किसी क्रिया के करने या होने का बोध हो, उसे क्रिया कहते है।

or

वाक्य में प्रयुक्त जिस शब्द अथवा शब्द समूह के द्वारा किसी कार्य के होने अथवा उसकी पूर्णता या अपूर्णता का बोध होता हो, उसे ‘क्रिया’ कहते हैं।

जैसे: पढ़ना, लिखना, खाना, पीना, खेलना, सोना आदि।

क्रिया के उदाहरण – 

  • विक्रम पढ़ रहा है।
  • शास्त्री जी भारत के प्रधानमंत्री थे।
  • महेश क्रिकेट खेल रहा है।
  • सुरेश खेल रहा है।
  • राजा राम पुस्तक पढ़ रहा है।
  • बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं।
  • लड़कियाँ गाना गा रही हैं।
  • गीता चाय बना रही है।
  • महेश पत्र लिखता है।
  • उसी ने बोला था।
  • राम ही सदा लिखता है।

क्रिया के भेद – 

क्रिया का वर्गीकरण तीन आधार पर किया गया है- कर्म के आधार पर, प्रयोग एवं संरचना के आधार पर तथा काल के आधार पर.

  1. कर्म के आधार पर
  2. प्रयोग एवं संरचना के आधार पर
  3. काल के आधार पर क्रिया का वर्गीकर

कर्म के आधार पर क्रिया के भेद

  1. सकर्मक क्रिया
  2. अकर्मक क्रिया

सकर्मक क्रिया

वे क्रियाएँ जिनका प्रभाव वाक्य में प्रयुक्त कर्ता पर न पड़कर कर्म पर पड़ता है उन्हें सकर्मक क्रिया कहते हैं। सकर्मक क्रिया का अर्थ कर्म के साथ में होता है, अर्थात सकर्मक क्रिया में कर्म पाया जाता है। सकर्मक क्रिया दो प्रकार की होती है।

सकर्मक शब्द ‘स’ और ‘कर्मक’ से मिलकर बना है, जहाँ ‘स’ उपसर्ग का अर्थ ‘साथ में’ तथा ‘कर्मक’ का अर्थ ‘कर्म के’ होता है।

सकर्मक क्रिया के उदाहरण – 

  1. गीता चाय बना रही है।
  2. महेश पत्र लिखता है।
  3. हमने एक नया मकान बनाया।
  4. वह मुझे अपना भाई मानती है।
  5. राधा खाना बनाती है।
  6. रमेश सामान लाता है।
  7. रवि ने आम ख़रीदे।
  8. हम सब से शरबत पीया।

अकर्मक क्रिया

वे क्रियाएँ जिनका प्रभाव वाक्य में प्रयुक्त कर्ता पर पड़ता है उन्हें अकर्मक क्रिया कहते हैं। अकर्मक क्रिया का अर्थ कर्म के बिना होता है, अर्थात अकर्मक क्रिया के साथ कर्म प्रयुक्त नहीं होता है।

अकर्मक शब्द अ और कर्मक से मिलकर बना है, जहाँ अ उपसर्ग का अर्थ बिना तथा कर्मक का अर्थ कर्म के होता है।

अकर्मक क्रिया के उदाहरण – 

  • रमेश दौड़ रहा है।
  • मैं एक अध्यापक था।
  • वह मेरा मित्र है।
  • मैं रात भर नहीं सोया।
  • मुकेश बैठा है।
  • बच्चा रो रहा है।

रचना की दृष्टि से क्रिया के भेद :

  1. सामान्य क्रिया
  2. सहायक क्रिया
  3. संयुक्त क्रिया
  4. सजातीय क्रिया
  5. कृदंत क्रिया
  6. प्रेरणार्थक क्रिया
  7. पूर्वकालीन क्रिया
  8. नाम धातु क्रिया
  9. नामिक क्रिया
  10. विधि क्रिया

सामान्य क्रिया

सामान्य क्रिया – यह क्रिया का सामान्य रूप होता है, जिसमें एक कार्य एवं एक ही क्रिया पद होता है। जब किसी वाक्य में एक ही क्रिया पद प्रयुक्त किया गया हो तो, उसे सामान्य क्रिया कहते हैं।

सामान्य क्रिया के उदाहरण 

  • रवि पुस्तक पढ़ता है।
  • श्याम आम खाता है।
  • श्याम जाता है।

सहायक क्रिया 

सहायक क्रिया – किसी वाक्य में मुख्य क्रिया की सहायता करने वाले पद को सहायक क्रिया कहते हैं, अर्थात किसी वाक्य में वह पद जो मुख्य क्रिया के साथ लगकर वाक्य को पूर्ण करता है, उसे सहायक क्रिया कहते हैं। सहायक क्रिया वाक्य के काल का परिचायक होती है।

सहायक क्रिया के उदाहरण 

  • रवि पढ़ता है।
  • मैंने पुस्तक पढ़ ली है।
  • विजय ने अपना खाना मेज़ पर रख दिया है।

संयुक्त क्रिया

संयुक्त क्रिया-वह क्रिया जो दो अलग-अलग क्रियाओं के योग से बनती है, उसे संयुक्त क्रिया कहते हैं।

संयुक्त क्रिया के उदाहरण 

  • रजनी ने खाना खा लिया।
  • मैंने पुस्तक पढ़ डाली है।
  • शंकर ने खाना बना लिया।

संयुक्त क्रिया के भेद

  1. आरंभबोधक :- जिस संयुक्त क्रिया से क्रिया के आरंभ होने का बोध होता है, उसे ’आरंभबोधक संयुक्त क्रिया’ कहते है। 

जैसे – वह पढ़ने लगा, पानी बरसने लगा, राम खेलने लगा।

  1. समाप्तिबोधक :-जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया की पूर्णता, व्यापार की समाप्ति का बोध हो, वह ’समाप्तिबोधक संयुक्त क्रिया’ है। 

जैसे – वह खा चुका है, वह पढ़ चुका है। धातु के आगे ’चुकना’ जोङने से समाप्तिबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।

  1. अवकाशबोधक :- जिस क्रिया को निष्पन्न करने के लिए अवकाश का बोध हो, वह ’अवकाशबोधक संयुक्त क्रिया’ कहते है। 

जैसे – वह मुश्किल से सो पाया, जाने न पाया।

  1. अनुमतिबोधक :- जिससे कार्य करने की अनुमति दिए जाने का बोध हो, वह ’अनुमतिबोधक संयुक्त क्रिया’ है। 

जैसे – मुझे जाने दो; मुझे बोलने दो। यह क्रिया ’देना’ धातु के योग से बनती है।

  1. नित्यताबोधक :- जिससे कार्य की नित्यता, उसके बंद न होने का भाव प्रकट हो, वह ’नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया’ है।

जैसे – हवा चल रही है; पेङ बढ़ता गया, तोता पढ़ता रहा। मुख्य क्रिया के आगे ’जाना’ या ’रहना’ जोङने से नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया बनती है।

  1. आवश्यकताबोधक :- जिससे कार्य की आवश्यकता या कर्तव्य का बोध हो, वह ’आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रिया’ है। 

जैसे – यह काम मुझे करना पङता है; तुम्हें यह काम करना चाहिए। साधारण क्रिया के साथ ’पङना’, ’होना’ या ’चाहिए’ क्रियाओं को जोङने से आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।

  1. निश्चयबोधक :– जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया के व्यापार की निश्चयता का बोध हो, उसे ’निश्चयबोधक संयुक्त क्रिया’ कहते हैं। 

जैसे – वह बीच ही में बोल उठा, उसने कहा – मैं मार बैठूँगा, वह गिर पङा, अब दे ही डालो। इस प्रकार की क्रियाओं में पूर्णता और नित्यता का भाव वर्तमान है।

  1. इच्छाबोधक :– इससे क्रिया के करने की इच्छा प्रकट होती है। 

जैसे – वह घर आना चाहता है, मैं खाना चाहता हूँ। क्रिया के साधारण रूप में ’चाहना’ क्रिया जोङने से ’इच्छाबोधक संयुक्त क्रियाएँ’ बनती हैं।

  1. अभ्यासबोधक :- इससे क्रिया के करने के अभ्यास का बोध होता है। सामान्य भूतकाल की क्रिया में ’करना’ क्रिया लगाने से अभ्यासबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती है। 

जैसे – यह पढ़ा करता है, तुम लिखा करते हो, मैं खेला करता हूँ।

  1. शक्तिबोधक :- इससे कार्य करने की शक्ति का बोध होता है। 

जैसे – मैं चल सकता हूँ, वह बोल सकता है। इसमें ’सकना’ क्रिया जोङी जाती है।

  1. पुनरुक्त संयुक्त क्रिया :- जब दो समानार्थक अथवा समान ध्वनि वाली क्रियाओं का संयोग होता है, तब उन्हें ’पुनरुक्त संयुक्त क्रिया’ कहते हैं। 

जैसे – वह पढ़ा-लिखा करता है, वह यहाँ प्रायः आया-जाया करता है, पङोसियों से बराबर मिलते-जुलते रहो।

Class 7 हिंदी व्याकरण  – काल 

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काल

काल का अर्थ हम “समय “से लेते है। अर्थात क्रिया के जिस रूप से हमें काम के होने के समय का बोध हो उसे काल कहते है। सरल शब्दो मे ज़ब हम या कोई भी व्यक्ति कोई भी कार्य करता है , उस कार्य से हमें उस समय का पता चलता है जिस समय मे वह काम हो रहा है या किया जा रहा है। तो उसे हम काल कहेगे । काल से हमें कार्य के समय का ज्ञान होता है। और कार्य के सही समय का पता चलता है कि काम अभी हो रहा है या पहले हुआ था या आने वाले समय मे होगा।

उदहारण-

  1. राधा ना गाना गया था।

इससे हमें पता चल रहा है कि गाना गया जा चूका है। काम खत्म हो चूका है। ज़ब कार्य पूर्ण होता है तो था, थे, थी का प्रयोग होता है ।

  1. मीरा कपड़े धो रही थी।

यहां मीरा कपड़े धो रही थी ।मतलब काम कर रही थी काम क़ो बीते समय मे यह बताने कि कोशिश की जा रही है।

रहा था, रही थी शब्दो से कार्य हो रहा था का पता चलता है ।

  1. मैं खाना बनाता हूँ।

यहां खाना बनाना वर्तमान समय मे होना बताया जा रहा है । खाना अभी बन रहा है।

  1. श्याम पत्र लिखता होगा।

श्याम पत्र लिखता होगा यहां वर्तमान मे काम कर रहा है ।

  1. हम घूमने जायेगे।

इस वाक्य से स्पष्ट होता है कि हम घूमने जायेगे, अभी गए नहीं है।

भविष्य मे होने वाले समय का पता चल रहा है।

हम उम्मीद करतें है कि आप काल के बारे में समझें होंगे

काल की  परिभाषा – 

क्रिया के उस रूपांतर को ’काल’ कहते हैं, जिससे कार्य-व्यापार का समय और उसकी पूर्ण अथवा अपूर्ण अवस्था का बोध हो।

काल के भेद

काल के तीन भेद हैं –

  1. वर्तमानकाल
  2. भूतकाल
  3. भविष्यतकाल

वर्तमानकाल: क्रियाओं के व्यापार की निरंतरता को ’वर्तमानकाल’ कहते हैं। इसमें क्रिया का आरंभ हो चुका होता है।

जैसे-

  • वह खाता है।
  • यहाँ ’खाने’ का कार्य-व्यापार चल रहा है, समाप्त नहीं हुआ है।
  • वह पढ़ रहा है।
  • पक्षी आकाश में उङते है।
  • वह अभी गया है।
  • उसने खाना खा लिया है।

वर्तमान काल के पाँच भेद हैं –

  1. सामान्य वर्तमान
  2. तात्कालिक वर्तमान
  3. पूर्ण वर्तमान
  4. संदिग्ध वर्तमान
  5. संभाव्य वर्तमान।
  6. सामान्य वर्तमान –

क्रिया का वह रूप जिससे क्रिया का वर्तमानकाल में होना पाया जाए, ’सामान्य वर्तमान’ कहलाता है।

जैसे –

  • वह आता है ।
  • वह देखता है।
  • पक्षी आकाश में उङते है।
  • वह अभी गया है।
  • उसने खाना खा लिया है।
  1. तात्कालिक वर्तमान – इससे यह पता चलता है कि क्रिया वर्तमानकाल में हो रही है।

जैसे –

  • मैं पढ़ रहा हूँ ।
  • वह जा रहा है।
  • हम घूमने जा रहे हैं।
  • विद्या कपङे धो रही है।
  • टंकी से पानी बह रहा है।
  • बच्चे खिलौनों से खेल रहे हैं।
  • बाघ हरिण का पीछा कर रहा है।
  • कुछ लोग पंडाल में आ रहे है, कुछ बाहर जा रहे है।
  1. पूर्ण वर्तमान – इससे वर्तमानकाल में कार्य की पूर्ण सिद्धि का बोध होता है।

जैसे –

  • वह आया है ।
  • लङके ने पुस्तक पढ़ी है।
  • वह चला गया है।
  • उसने भोजन कर लिया है।
  • मैं तो सुबह ही नहा चुका हूँ।
  • घङा पानी से भर गया है।
  1. संदिग्ध वर्तमान – जिससे क्रिया के होने में संदेह प्रकट हो, पर उसकी वर्तमानता में संदेह न हो।

जैसे –

  • राम खाता होगा ।
  • वह पढ़ता होगा।
  • वह सो रहा होगा।
  • उल्लास खेलता होगा।
  • छात्र कहानियाँ सुन रहे होंगे।
  • पहरेदार जाग रहा होगा।
  1. संभाव्य वर्तमान – इससे वर्तमानकाल में काम के पूरा होने की संभावना रहती है।

जैसे –

  • वह आया हो।
  • वह लौटा हो।
  • सुधाकर आता है तो काम हो जाना चाहिए।
  • वह स्वस्थ होता लगता है।
  • वह पढ़े तो पढ़ने देना।
  • अब तो देश आगे बढ़ना ही चाहिए।

भूतकाल 

परिभाषा – जिस क्रिया से कार्य की समाप्ति का बोध हो, उसे भूतकाल की क्रिया कहते हैं।

जैसे –

  • लङका आया था ।
  • वह खा चुका था ।
  • मैंने गाया।
  • दो दिन पहले जोर की वर्षा हुई थी।
  • नेता जी का प्रचार-रथ बङी भीङ के साथ जा रहा था।

भूतकाल के छ: भेद है –

  1. सामान्य भूत
  2. आसन्न भूत
  3. पूर्ण भूत
  4. अपूर्ण भूत
  5. संदिग्ध भूत
  6. हेतुहेतुमद्भुत।
  7. सामान्य भूत –

जिससे भूतकाल की क्रिया के विशेष समय का ज्ञान न हो।

जैसे –

  • मोहन आया ।
  • सीता गई।
  • मोहन आया, सीता गई।
  • विनय घर गया।
  • मैंने खाना खाया।
  • वे कल यहाँ आए थे।
  • उसने पिछले वर्ष परीक्षा दी।
  1. आसन्न भूत –

इससे क्रिया की समाप्ति निकट भूत में या तत्काल ही सूचित होती है।

जैसे-

  • मैंने आम खाया है।
  • मैं चला हूँ।
  • वे अभी आए हैं।
  • बच्चा सो गया है।
  • प्रभा बस अभी गयी है।
  • वृक्ष गिर गया है।
  • वह पिछले सप्ताह गाँव आया है।
  • विद्यालय घण्टे भर पहले बन्द हुआ है।
  • वे घर आ गए है।
  • अनुराधा अभी घर गई है।
  • बहुत गर्मी हो गई है।
  • मैंने विचार किया है।
  1. पूर्ण भूत –

क्रिया के उस रूप को पूर्ण भूत कहते हैं, जिससे क्रिया की समाप्ति के समय का स्पष्ट बोध होता है कि क्रिया को समाप्त हुए काफी समय बीता है।

जैसे –

  • उसने मुरारी को मारा था ।
  • वह आया था।
  • व्यास जी ने महाभाारत रचा था।
  • वर्षा न होने से खेती सूख गई थी।
  • पुलिस के आने से पहले ही लुटेरे भाग चुके थे।
  • अब पछताए होत का, चिङियाँ चुग गई खेत।
  • मैंने दो वर्ष पहले बी. ए. किया था।
  • शिवशंकर ने 2009 में यह बच्चा गोद लिया।
  • इस मकान में आप कब आए थे।
  • अपराधी तो दुर्घटना में मर चुका था।
  • ओलों से फसल नष्ट हो चुकी थी।
  • सभी सहेलियाँ घरों को जा चुकी थी।
  1. अपूर्ण भूत –

इससे यह ज्ञात होता है कि क्रिया भूतकाल में हो रहा थी, किंतु उसकी समाप्ति का पता नहीं चलता।

जैसे-

  • सुरेश गीत गा रहा था ।
  • गीता सो रही थी।
  • वह सोता था।
  • चुनावी रंग निरन्तर बढ़ रहा था।
  • रोम जलता था नीरो बंशी बजाता था।
  • वे अँधेरे में ही आगे बढ़ रहे थे।
  • अँग्रेज झाँसी को हङपने का षड्यंत्र रच रहे थे।
  • सीमा पर हमारे जवान दिन-रात पहरा देते थे।
  • हम बचपन में इस पार्क में खेला करते थे।
  • बहुत पहले पृथ्वी पर डायनासोर रहा करते थे।
  • वह प्रायः शुक्रवार को आता था।
  • चिङियाँ इन्हीं झाङियों में चहकती थी।
  • वह हर महीने उधार चुकाती थी।
  • झरना मंदगति से बह रहा था।
  • शत्रु घात लगाकर आगे बढ़ रहा था।
  • बेचारी गाय सङक पर दम तोङ रही थी।
  • डाकू धीरे-धीरे आगे बढ़ते आ रहे थे।
  • पुजारी रोज शाम को आरती किया करता था।
  • याद है, हम दोनों नदी किनारे घण्टों घूमा करते थे।
  1. संदिग्ध भूत –

इसमें यह संदेश बना रहता है कि भूतकाल में कार्य पूरा हुआ था या नहीं।

जैसे-

  • तुमने गाया होगा ।
  • तू गाया होगा।
  • वह चला गया होगा।
  • किसान काम बंद करके घर जा चुके होंगे।
  • लगता है वह ठीक समय पर पहुँच गया होगा।
  • अवश्य ही मरने से पहले, उसने मुझे याद किया होगा।
  • शायद सभी छात्र, तब तक जा चुके होंगे।
  1. हेतुहेतुमद्भूत –

इससे यह पता चलता है कि क्रिया भूतकाल में होनेवाली थी, पर किसी कारण(reason) न हो सकी।

जैसे –

  • मैं आता ।
  • तू जाता ।
  • वह खाता।
  • मैं घर पर होता, तो वह अवश्य रुकती।
  • दिव्या प्रथम आई होती, तो उसे पुरस्कार मिलता।
  • बाढ़ आ गई होती, तो सारा गाँव डूब जाता।
  • यदि समय पर चिकित्सा मिल जाती है, तो अनेक घायलों की जानें बच जातीं।
  • आतंकवादी सफल हो गए होते, तो सैकङों निर्दोष लोगों मारे जाते।
  • सही निर्णय लिया गया होता, तो कश्मीर की समस्या उसी समय सुलझ गई होती।

भविष्यत काल 

भविष्य में होने वाली क्रिया को भविष्यत काल की क्रिया कहते हैं।

जैसे –

वह कल घर जाएगा।

भविष्यत काल के तीन भेद है –

  1. सामान्य भविष्य
  2. संभाव्य भविष्य
  3. हेतुहेतुमद् भविष्य।
  4. सामान्य भविष्य –

इससे यह प्रकट होता है कि क्रिया सामान्यतः भविष्य में होगी।

जैसे-

  • मैं पढूँगा ।
  • वह जाएगा।
  • वह आएगा।
  • हम पढे़ंगे।
  • दालें और सस्ती होंगी।
  • उसका विवाह होगा।
  • भवेश पढ़ेगा।
  • बच्चे खेलेंगे।
  • मनीषा पढ़ेगी।
  • लङकियाँ नाचेंगी।
  • मैं लिखूँगा।
  • मैं लिखूँगी।
  1. संभाव्य भविष्य –

जिससे भविष्य में किसी कार्य के होने की संभावना हो ।

जैसे –

  • संभव है ।
  • रमेश कल आया।
  • लगता है वे आएँगे।
  • सम्भव है पीयूष वहाँ मिले।
  • हो सकता है भारत फिर विश्व गुरु हो जाए।
  • सम्भावना है कि फसल अच्छी होगी।
  • सम्भव है, वर्षा आए।
  • लगता है, मजदूर न मिले।
  • हो सकता है, हम तुम्हें स्टेशन पर मिलें।
  • लगता है, सभी कार्यकर्ता चैराहे पर एकत्र हों।
  • सम्भावना है, मैं उससे मिलने जाऊँ।
  • लगता है कि तुम सच बोलो।
  1. हेतुहेतुमद् भविष्य –

इसमें एक क्रिया का होना दूसरी क्रिया के होने पर निर्भर करता है।

जैसे –

  • वह आए तो मैं जाऊँ ।
  • वह कमाए तो खाए।

Class 7 हिंदी व्याकरण  – कारक

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कारक

अगर हम आसानी से इसे समझें तो ऐसे कि क्रिया से सम्बन्ध रखने वाले वे सभी शब्द जो संज्ञा या सर्वनाम के रूप में होते हैं, उन्हें कारक कहते हैं।

अर्थात कारक संज्ञा या सर्वनाम शब्दों का वह रूप होता है जिसका सीधा सम्बन्ध क्रिया से ही होता है।

किसी कार्य को करने वाला कारक यानि जो भी क्रिया को करने में मुख्य भूमिका निभाता है, वह कारक कहलाता है।

परिभाषा –

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उसका सम्बन्ध वाक्य के किसी दूसरे शब्द के साथ जाना जाए, उसे कारक कहते हैं। वाक्य में प्रयुक्त शब्द आपस में सम्बद्ध होते हैं। क्रिया के साथ संज्ञा का सीधा सम्बन्ध ही कारक है। कारक को प्रकट करने के लिये संज्ञा और सर्वनाम के साथ जो चिन्ह लगाये जाते हैं, उन्हें विभक्तियाँ कहते हैं।

जैसे – पेङ पर फल लगते हैं। इस वाक्य में पेङ कारकीय पद हैं और ’पर’ कारक सूचक चिन्ह अथवा विभक्ति है।

कारक के भेद

कारकविभक्तियाँ
 1. कर्ता  ने
 2. कर्म  को
 3. करण  से, द्वारा
 4. सम्प्रदान  को, के लिये, हेतु
 5. अपादान  से (अलग होने के अर्थ में)
 6. सम्बन्ध   का, की, के, रा, री, रे
 7. अधिकरण  में, पर
 8. सम्बोधन  हे! अरे! ऐ! ओ! हाय!
  1. कर्ता कारक 
  2. कर्मकारक 
  3. करण कारक 
  4. सम्प्रदान कारक 
  5. अपादान कारक 
  6. सम्बन्ध कारक 
  7. अधिकरण कारक
  8. सम्बोधन कारक 

कर्ता कारक

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से क्रिया के करने वाले का बोध हो, उसे कर्ता कारक(Karta Karak) कहते हैं। इसका चिन्ह ’ने’ कभी कर्ता के साथ लगता है, और कभी वाक्य में नहीं होता है,अर्थात लुप्त होता है ।

उदाहरण –

  • रमेश ने पुस्तक पढ़ी।
  • सुनील खेलता है।
  • पक्षी उङता है।
  • मोहन ने पत्र पढ़ा।

इन वाक्यों में ’रमेश’, ’सुनील’ और ’पक्षी’ कर्ता कारक हैं, क्योंकि इनके द्वारा क्रिया के करने वाले का बोध होता है।

कर्मकारक

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप पर क्रिया का प्रभाव या फल पङे, उसे कर्म कारक कहते हैं। कर्म के साथ ’को’ विभक्ति आती है। इसकी यही सबसे बड़ी पहचान होती है। कभी-कभी वाक्यों में  ’को’ विभक्ति का लोप भी हो जाया करता है।

उदाहरण –

  • उसने सुनील को पढ़ाया।
  • मोहन ने चोर को पकङा।
  • लङकी ने लङके को देखा।
  • कविता पुस्तक पढ़ रही है।

’कहना’ और ’पूछना’ के साथ ’से’ प्रयोग होता हैं। इनके साथ ’को’ का प्रयोग नहीं होता है , जैसे –

  • कबीर ने रहीम से कहा।
  • मोहन ने कविता से पूछा।

यहाँ ’से’ के स्थान पर ’को’ का प्रयोग उचित नही है।

करण कारक

जिस साधन से अथवा जिसके द्वारा क्रिया पूरी की जाती है, उस संज्ञा को करण कारक कहते हैं।

इसकी मुख्य पहचान ’से’ अथवा ’द्वारा’ है

उदाहरण –

  • रहीम गेंद से खेलता है।
  • आदमी चोर को लाठी द्वारा मारता है।

यहाँ ’गेंद से’ और ’लाठी द्वारा’ करण कारक है।

सम्प्रदान कारक

जिसके लिए क्रिया की जाती है, उसे सम्प्रदान कारक कहते हैं। इसमें कर्म कारक ’को’ भी प्रयुक्त होता है, किन्तु उसका अर्थ ’के लिये’ होता है।

उदाहरण –

  • सुनील रवि के लिए गेंद लाता है।
  • हम पढ़ने के लिए स्कूल जाते हैं।
  • माँ बच्चे को खिलौना देती है।

उपरोक्त वाक्यों में ’मोहन के लिये’ ’पढ़ने के लिए’ और बच्चे को सम्प्रदान  है।

अपादान कारक

अपादान का अर्थ है- अलग होना। जिस संज्ञा अथवा सर्वनाम से किसी वस्तु का अलग होना ज्ञात हो, उसे अपादान कारक कहते हैं।

करण कारक की भाँति अपादान कारक का चिन्ह भी ’से’ है, परन्तु करण कारक में इसका अर्थ सहायता होता है और अपादान में अलग होना होता है।

उदाहरण –

  • हिमालय से गंगा निकलती है।
  • वृक्ष से पत्ता गिरता है।
  • राहुल छत से गिरता है।

इन वाक्यों में ’हिमालय से’, ’वृक्ष से’, ’छत से ’ अपादान कारक है।

सम्बन्ध कारक 

संज्ञा अथवा सर्वनाम के जिस रूप से एक वस्तु का सम्बन्ध दूसरी वस्तु से जाना जाये, उसे सम्बन्ध कारक कहते हैं।

इसकी मुख्य पहचान है – ’का’, ’की’, के

उदाहरण –

  • राहुल की किताब मेज पर है।
  • सुनीता का घर दूर है।

सम्बन्ध कारक क्रिया से भिन्न शब्द के साथ ही सम्बन्ध सूचित करता है।

अधिकरण कारक 

संज्ञा के जिस रूप से क्रिया के आधार का बोध होता है, उसे अधिकरण कारक कहते हैं। इसकी मुख्य पहचान है ’में’, ’पर’ होती है ।

उदाहरण –

  • घर पर माँ है।
  • घोंसले में चिङिया है।
  • सङक पर गाङी खङी है।

यहाँ ’घर पर’, ’घोंसले में’, और ’सङक पर’, अधिकरण  है।

सम्बोधन कारक 

संज्ञा या जिस रूप से किसी को पुकारने तथा सावधान करने का बोध हो, उसे सम्बोधन कारक कहते हैं।

इसका सम्बन्ध न क्रिया से और न किसी दूसरे शब्द से होता है। यह वाक्य से अलग रहता है। इसका कोई कारक चिन्ह भी नहीं है।

उदाहरण –

  • खबरदार !
  • रीना को मत मारो।
  • रमा ! देखो कैसा सुन्दर दृश्य है।
  • लङके ! जरा इधर आ।

Class 7 हिंदी व्याकरण  – उपसर्ग

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उपसर्ग

यह दो शब्दों (उप+सर्ग) के योग से बनता है। ’उप’ का अर्थ ’समीप’, ’निकट’ या ’पास में’ है। ’सर्ग’ का अर्थ है सृष्टि करना।

’उपसर्ग’ का अर्थ है पास में बैठकर दूसरा नया अर्थ वाला शब्द बनाना। ’हार’ के पहले ’प्र’ उपसर्ग लगा दिया गया, तो एक नया शब्द ’प्रहार’ बन गया, जिसका नया अर्थ हुआ ’मारना’।

आसान अर्थ : उपसर्ग उप +सर्ग के योग से बना है यह एक संयोग का पद है। उप का मतलब है सहायक या समीप का और सर्ग का मतलब है:- भाग या अंग

अतः उपसर्ग का मतलब हुआ “सहायक या समीप का अंग या भाग”

उपसर्ग शब्दांश होते है अर्थात यह शब्दो का अंग होते है। वह शब्दांश जो शब्दो के आगे जुड़ कर उसके अर्थ मे परिवर्तन कर देते है या अर्थ मे विशेषता ला देते है अथवा अन्य शब्द बना देते है वह उपसर्ग कहलाते है।

उपसर्गों का स्वतंत्र अस्तित्व न होते हुए भी वे अन्य शब्दों के साथ मिलकर उनके एक विशेष अर्थ का बोध कराते हैं। उपसर्ग शब्द के पहले आते हैं।

जैसे – ’अन’ उपसर्ग ’बन’ शब्द के पहले रख देने से एक शब्द ’अनबन’ बनता है, जिसका विशेष अर्थ ’मनमुटाव’ है। कुछ उपसर्गों के योग से शब्दों के मूल अर्थ में परिवर्तन नहीं होता, बल्कि तेजी आती है।

जैसे – ’भ्रमण’ शब्द के पहले ’परि’ उपसर्ग लगाने से अर्थ में अंतर न होकर तेजी आई। कभी-कभी उपसर्गों के प्रयोग से शब्द का बिल्कुल उलटा अर्थ निकलता है।

उपसर्ग किसी शब्द के आरम्भ मे जुड़ कर अर्थवान हो जाते है जैसे अ उपसर्ग नहीं का अर्थ देता है

जैसे : 

  • अ+ भाव = अभाव
  • अ+थाह   = अथाह

इसी प्रकार नि उपसर्ग

नि + डर = निडर

जैसे :-

  • अ + सुंदर = असुंदर (यहां अर्थ बदल गया है )
  • अति +सुंदर =अतिसुन्दर (यहां शब्द मे विशेषता आई है )

इसी तरह हम अन्य उदाहरण देखेंगे

  • आ+हार  = आहार (नया शब्द बना है )
  • प्रति+हार  = प्रतिहार (नया शब्द बना है
  • प्र+हार  = प्रहार (नया शब्द बना है )
  • अति+अल्प  = अत्यल्प
  • अधि + अक्ष = अध्यक्ष

उपसर्गों के प्रयोग से शब्दों की तीन स्थितियाँ होती हैं –

  • शब्द के अर्थ में एक नई विशेषता आती है,
  • शब्द के अर्थ में प्रतिकूलता उत्पन्न होती है,
  • शब्द के अर्थ में कोई विशेष अंतर नहीं आता।

यहाँ ’उपसर्ग’ और ’शब्द’ का अंतर समझ लेना चाहिए। शब्द अक्षरों का एक समूह है, जो अपने में स्वतंत्र है, अपना अर्थ रखता है और वाक्यों में स्वतंत्रतापूर्वक प्रयुक्त होता है।

लेकिन, उपसर्ग अक्षरों का समूह होते हुए भी स्वतंत्र नहीं है और न स्वतंत्ररूप से उसका प्रयोग ही होता है। जब तक किसी शब्द के साथ उपसर्ग की संगति नहीं बैठती, तब तक उपसर्ग अर्थवान् नहीं होता।

संस्कृत में शब्दों के पहले लगने वाले कुछ निश्चित शब्दांशों को ही उपसर्ग कहते हैं और शेष को अव्यय। हिंदी में इस तरह का कोई अंतर नहीं है। हिंदी भाषा में ’उपसर्ग’ की योजना व्यापक अर्थ में हुई है।

उपसर्गों की संख्या

हिंदी में जो उपसर्ग मिलते हैं, वे संस्कृत, हिंदी और उर्दू भाषा के हैं। इन भाषाओं से प्राप्त उपसर्गों की संख्या इस तरह निश्चित की गई है:

  • संस्कृत उपसर्ग – 19
  • हिंदी उपसर्ग – 10
  • उर्दू उपसर्ग – 12

इनमें से प्रत्येक इस प्रकार है –

संस्कृत-हिंदी उपसर्ग

उपसर्गअर्थशब्दरूप
अतिअधिक, ऊपर, उस पारअतिकाल, अतिरिक्त, अतिशय, अत्यंत, अत्याचार, अत्युक्ति, अतिव्याप्ति,
अतिक्रमण इत्यादि।
अधिश्रेष्ठ, ऊपर, सामीप्यअधिकरण, अधिकार, अधिराज, अध्यात्म, अध्यक्ष, अधिपति इत्यादि।
अनुक्रम, पश्चात्, समानताअनुशासन, अनुकरण, अनुवाद, अनुचर, अनुज, अनुक्रम, अनुपात, अनुरूप, अनुस्वार, अनुकूल, अनुशीलन इत्यादि।
अपलघुता, हीनता, अभाव, विरुद्धअपमान, अपशब्द, अपहरण, अपराध, अपकार, अपभ्रंश , अपकीर्ति , अपयश, अपप्रयोग, अपव्यय, अपवाद, अपकर्ष
अभिसामीप्य, आधिक्य, ओर, इच्छा प्रकट करनाअभिभावक, अभियान, अभिशाप, अभिप्राय, अभियोग, अभिसार, अभिमान, अभिनव, अभ्युदय, अभ्यागत, अभिमुख, अभ्यास, अभिलाषा इत्यादि।
अवहीनता, अनादर, पतनअवगत, अवलोकन, अवनत, अवस्था, अवसान, अवज्ञा, अवरोहण, अवतार, अवनति, अवशेष इत्यादि।
सीमा, और, समेत, कमी, विपरीतआरक्त, आगमन, आकाश, आकर्षण, आजन्म, आरंभ, आक्रमण, आदान, आचरण, आजीवन, आरोहण, आमुख, आमरण, आक्रोश इत्यादि।
उत्+उद्ऊपर, उत्कर्षउत्तम, उत्कण्ठा, उत्कर्ष, उत्पन्न, उन्नति, उद्देश्य, उद्गम, उत्थान, उद्भव, उत्साह, उद्गार, उद्यम, उद्धत इत्यादि।
उपनिकटता, सदृश, गौण, सहायक, हीनताउपकार, उपकूल, उपनिवेश, उपदेश, उपस्थिति, उपमंत्री, उपवन, उपनाम, उपासना, उपभेद इत्यादि।
दुर-दुस्बुरा, कठिन, दुष्ट, हीनदुरवस्था, दुर्दशा, दुर्लभ, दुर्जन, दुर्लंध्य, दुर्दमनीय, दुराचार, दुस्साहस,
दुष्कर्म, दुःसाध्य, दुष्प्राप्य, दुःसह, दुर्गुण, दुर्गम इत्यादि।
निभीतर, नीचे, अतिरिक्तनिदर्शन, निकृष्ट, निपात, नियुक्त, निवास, निरूपण, निमग्न, निवारण,  निम्न, निषेध, निरोध, निदान, निबंध इत्यादि।
निर्-निस्बाहर, निषेध, रहितनिर्वास , निराकरण, निर्भय, निरपराध, निर्वाह, निर्दोष, निर्जीव, नीरोग, निर्मल इत्यादि।
पराउलटा, अनादर, नाशपराजय, पराक्रम, पराभव, परामर्श, पराभूत इत्यादि।
परिआसपास, चारों ओर, पूर्ण, अतिशय, त्यागपरिक्रमा, परिजन, परिणाम, परिधि, परिपूर्ण, परिवर्तन, परिणय, पर्याप्त, परिशीलन, परिदोष, परिदर्शन, परिचय इत्यादि।
प्रअधिक, आगे, ऊपर, यशप्रकाश, प्रख्यात, प्रचार, प्रबल, प्रभु, प्रयोग, प्रगति, प्रसार, प्रस्थान, प्रलय, प्रमाण, प्रसन्न, प्रसिद्धि प्रताप, प्रपंच इत्यादि।
प्रतिविरोध, बराबरी, प्रत्येक, परिवर्तनप्रतिक्षण, प्रतिध्वनि, प्रतिनिधि, प्रतिकार, प्रत्येक, प्रतिदान, प्रतिकूल, प्रतिवादी, प्रत्यक्ष, प्रत्युपकार इत्यादि।
विभिन्नता, हीनता, असमानता, विशेषताविकास, विज्ञान, विदेश, विधवा, विवाद, विशेष, विस्मरण, विराम, विभाग,
विकार, विमुख, विनय, विभिन्न, विनाश, इत्यादि।
सम्पूर्णता, संयोगसंकल्प, संग्रह, संतोष, संन्यास, संयोग, संस्कार, संरक्षण, संहार, सम्मेलन, संस्कृत, सम्मुख, संग्राम, संसर्ग इत्यादि।
सुसुखी, अच्छा भाव, सहज, सुंदरसुकर्म, सुकृत, सुगम, सुलभ, सुदूर, स्वागत, सुयश, सुभाषित, सुवास,
सुकिव, सुजन इत्यादि।
अ-अननिषेध के अर्थ मेंअमोल, अपढ़, अजान, अगाध, अथाह, अलग, अनमोल, अनजान इत्यादि
अधआधे के अर्थ मेंअधजला, अधपका, अधखिला, अधमरा, अधपई, अधसेरा इत्यादि
उनएक कमउन्नीस, उनतीस, उनचास, उनसठ, उनहत्तर इत्यादि।
औ (अव)हीनता, निषेधऔगुन, औघट, औसर, औढर इत्यादि
दुबुरा, हीनदुकाल, दुबला इत्यादि
निनिषेध, अभाव, विशेषनिकम्मा, निखरा, निडर, निहत्था, निधङक, निगोङा इत्यादि
विननिषेधबिनजाना, बिनब्याहा, बिनबोया, बिनदेखा, बिनखाया, बिनचखा, बिनकाम इत्यादि।
भरपूरा, ठीकभरपेट, भरसक, भरपूर, भरदिन इत्यादि
कु-कबुराई, हीनताकुखेत, कुपात्र, कुघङी, कुकाठ, कपूत, कुढंग इत्यादि।
सु-सश्रेष्ठता और साथ के अर्थ मेंसुडौल, सुघङ, सुजान, सुपात्र, सपूत, सजग, सगोत्र, सरस, सहित इत्यादि।

उर्दू-उपसर्ग (अरबी-फारसी)

उपसर्गअर्थशब्दरूप
अलनिश्चितअलबत्ता, अलगरज इत्यादि
कमहीन, थोङाकमउम्र, कमखयाल, कमसिन इत्यादि
खुशश्रेष्ठता के अर्थ मेंखुशबू, खुशदिल, खुशकिस्मत, खुशहाल, खुशखबरी इत्यादि।
गैरनिषेधगैरहाजिर, गैरवाजिब, गैरकानूनी,गैरसरकारी इत्यादि।
दरमेंदरकार, दरमियान इत्यादि।
नाअभावनापसंद, नामुमकिन, नाराज, नालायक, नादान इत्यादि।
बदबुराबदमाश, बदनाम, बदकार, बदकिस्मत, बदबू, बदहजमी इत्यादि।
बरऊपर, पर, बाहरबरखास्त, बरदाशत, बरवक्त इत्यादि
बिलसाथबिलकुल
बेबिनाबेईमान, बेवकूफ, बेरहम, बेतरह, बेइज्जत, इत्यादि।
लाबिनालाचार, लाजवाब, लावारिस, लापरवाह, लापता इत्यादि।
हमबराबर, समानहमउम्र, हमदर्दी, हमपेशा इत्यादि

Class 7 हिन्दी व्याकरण – अव्यय

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अव्यय

अव्यय ऐसे शब्द क्यों कहते हैं जिन शब्दों में लिंग, कारक, वचन आदि के कारण कोई भी परिवर्तन नहीं आता हो, उन्हें अव्यय अविकारी शब्द के नाम से जाना जाता है। यह शब्द हमेशा परिवर्तित होते हैं।

परिभाषा-

जो शब्द लिंग, वचन, कारक, पुरूष और काल के कारण नहीं बदलते, वे अव्यय कहलाते हैं|

ऐसे शब्द जिसमें लिंग, वचन, पुरुष, कारक आदि के कारण कोई विकार नहीं आता अव्यय  कहलाते हैं।

यह सदैव अपरिवर्तित, अविकारी एवं अव्यय रहते हैं। इनका मूल रूप स्थिर रहता है, वह कभी बदलता नहीं है

जैसे – इधर, किंतु, क्यों, जब, तक, इसलिए, आदि।

अव्यय के प्रकार –

  1. क्रिया विशेषण
  2. सम्बन्ध बोधक
  3. समुच्चय बोधक
  4. विस्मयादि बोधक
  5. क्रिया विशेषण –

वे शब्द जो क्रिया की विशेषता प्रकट करें, उन्हें क्रिया-विशेषण कहते हैं|

इसके चार भेद हैं

  1. कालवाचक :-

जिससे क्रिया के करने या होने के समय (काल) का ज्ञान हो, वह कालवाचक क्रिया विशेषण कहलाता है|

जैसे – परसों मंगलवार हैं, आपको अभी जाना चाहिए, आजकल, कभी, प्रतिदिन, रोज, सुबह, अक्सर, रात को, चार बजे, हर साल आदि।

  1. स्थान वाचक :– जिससे क्रिया के होने या करने के स्थान का बोध हो, वह स्थानवाचक क्रिया विशेषण कहलाता है।

जैसे– यहाँ, वहाँ, इधर, उधर, नीचे, ऊपर, बाहर, भीतर, आसपास आदि।

  1. परिमाणवाचक :– जिन शब्दों से क्रिया के परिमाण या मात्रा से सम्बन्धित विशेषता का पता चलता है। परिमाणवाचक क्रिया विशेषण कहलाते है।

जैसे –

  • वह दूध बहुत पीता है।
  • वह थोड़ा ही चल सकी।
  • उतना खाओ जितना पचा सको।
  1. रीतिवाचक :– जिससे क्रिया के होने या करने के ढ़ग का पता चले, वे रीतिवाचक क्रिया विशेषण कहलाते है।

जैसे –

  • शनैः शनैः जाता है।
  • सहसा बम फट गया।
  • निश्चिय पूर्वक करूँगा।
  1. सम्बन्ध बोधक –

जिस अव्यय शब्द से संज्ञा अथवा सर्वनाम का सम्बन्ध वाक्य के दूसरे शब्दों के साथ प्रकट होता है, उसे सम्बन्ध बोधक अव्यय कहते है।

जैसे-

  • उसके सामने मत ठहरो।
  • पेड़ के नीचे बैठो

से पहले, के भीतर, की ओर, की तरफ, के बिना, के अलावा, के बगैर, के बदले, की जगह, के साथ, के संग, के विपरीत आदि।

  1. समुच्चय बोधक या योजक –

जो अव्यय दो शब्दों अथवा दो वाक्यों को जोड़ने का कार्य करते हैं उन्हें समुच्चय बोधक अव्यय कहते है।

जैसे– और, तथा, एवं, मगर, लेकिन, किन्तु, परन्तु, इसलिए, इस कारण, अतः, क्योंकि, ताकि, या, अथवा, चाहे आदि।

  1. विस्मयादि बोधक –

जिन अविकारी शब्दों से हर्ष, शोक, आश्चर्य घृणा, दुख, पीड़ा आदि का भाव प्रकट हो उन्हे विस्मयादि बोधक अव्यय कहते हैं|

जैसे – ओह!, हे!, वाह!, अरे!, अति सुंदर!, उफ!, हाय!, धिक्कार!, सावधान!, बहत अच्छा!, तौबा-तौबा!, अति सुन्दर आदि।

Class 7 हिन्दी व्याकरण – अलंकार

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अलंकार

काव्य की शोभा बढ़ाने वाले उपकरणों को अलंकार करते हैं। जैसे अलंकरण धारण करने से शरीर की शोभा बढ़ जाती है, वैसे ही अलंकरण के प्रयोग से काव्य में चमक उत्पन्न हो जाती है। संस्कृत आचार्य दंडी के अनुसार ‘अलंकार काव्य का शोभाकारक धर्म है’ और आचार्य वामन के अनुसार ‘अलंकार ही सौंदर्य है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “कथन की रोचक, सुंदर और प्रभावपूर्ण प्रणाली अलंकार है। गुण और अलंकार में यह अंतर है की गुण सीधे रस का उत्कर्ष करते हैं, अलंकार सीधे रस का उत्कर्ष नहीं करते हैं।

अलंकार की परिभाषा – 

अलंकार दो सब्दो से मिलकर बना है- ‘अलम’ और ‘कार’ | जहा ‘अलम’ का शाब्दिक अर्थ है, आभूषण और ‘कार’ का अर्थ है धारण करना |

जिस प्रकार स्त्रिया अपने शरीर की शोभा बढ़ाने के लिए आभूषण को पहनती है उसी प्रकार किसी भाषा या कविता को सुन्दर बनाने के लिए अलंकार का प्रयोग किया जाता है |

दूसरे सब्दो में कहे तो जो ” शब्द काव्य की शोभा को बढ़ाते हैं उसे अलंकार कहते हैं।”

उदाहरण: “चारु चंद्र की चंचल किरणें ”

अलंकार के भेद –

  1. शब्दालंकार
  2. अर्थालंकार
  3. उभयालंकार
  4. शब्दालंकार

शब्दालंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – शब्द + अलंकार। शब्द के दो रूप होते हैं – ध्वनी और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। जब अलंकार किसी विशेष शब्द की स्थिति में ही रहे और उस शब्द की जगह पर कोई और पर्यायवाची शब्द के रख देने से उस शब्द का अस्तित्व न रहे उसे शब्दालंकार कहते हैं।

शब्दालंकार के भेद  – 

  1. अनुप्रास अलंकार
  2. यमक अलंकार
  3. पुनरुक्ति अलंकार
  4. विप्सा अलंकार
  5. वक्रोक्ति अलंकार
  6. शलेष अलंकार
  7. अनुप्रास अलंकार –

अनुप्रास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – अनु + प्रास | यहाँ पर अनु का अर्थ है- बार-बार और प्रास का अर्थ होता है, – वर्ण। जब किसी वर्ण की बार – बार आवर्ती हो तब जो चमत्कार होता है उसे अनुप्रास अलंकार कहते है।

अनुप्रास अलंकार के उदाहरण – 

  1. “मैया मोरी मैं नही माखन खायो”

[यहाँ पर ‘म’ वर्ण की आवृत्ति बार बार हो रही है।]

  1. “चारु चंद्र की चंचल किरणें”

[यहाँ पर ‘च’ वर्ण की आवृत्ति बार बार हो रही है।]

  1. “कन्हैया किसको कहेगा तू मैया”

[यहाँ पर ‘क’ वर्ण की आवृत्ति बार बार हो रही है।]

अनुप्रास के भेद –

  1. छेकानुप्रास अलंकार
  2. वृत्यानुप्रास अलंकार
  3. लाटानुप्रास अलंकार
  4. अन्त्यानुप्रास अलंकार
  5. श्रुत्यानुप्रास अलंकार
  6. छेकानुप्रास अलंकार :- जहाँ पर स्वरुप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृति एक बार हो वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है।

उदाहरण :- 

रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै।

साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।।

  1. वृत्यानुप्रास अलंकार:- जब एक व्यंजन की आवर्ती अनेक बार हो वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार कहते हैं।

उदाहरण :-

“चामर-सी, चन्दन – सी, चंद – सी,

चाँदनी चमेली चारु चंद-सुघर है।”

  1. लाटानुप्रास अलंकार :-

जहाँ शब्द और वाक्यों की आवर्ती हो तथा प्रत्येक जगह पर अर्थ भी वही पर अन्वय करने पर भिन्नता आ जाये वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है। अथार्त जब एक शब्द या वाक्य खंड की आवर्ती उसी अर्थ में हो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है।

उदाहरण :– 

तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,

तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

  1. अन्त्यानुप्रास अलंकार :– जहाँ अंत में तुक मिलती हो वहाँ पर अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है।

उदाहरण :-

“लगा दी किसने आकर आग।

कहाँ था तू संशय के नाग?”

  1. श्रुत्यानुप्रास अलंकार:- जहाँ पर कानों को मधुर लगने वाले वर्णों की आवर्ती हो उसे श्रुत्यानुप्रास अलंकार कहते है।

उदाहरण:– 

“दिनान्त था, थे दीननाथ डुबते,

सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे।”

  1. यमक अलंकार –

यमक शब्द का अर्थ होता है – दो। जब एक ही शब्द ज्यादा बार प्रयोग हो पर हर बार अर्थ अलग-अलग आये वहाँ पर यमक अलंकार होता है।

यमक अलंकार के उदाहरण –

उदाहरण :- 

कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।

वा खाये बौराए नर, वा पाये बौराये।

  1. पुनरुक्ति अलंकार

पुनरुक्ति अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना है – पुन: +उक्ति। जब कोई शब्द दो बार दोहराया जाता है वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है।

  1. विप्सा अलंकार

जब आदर, हर्ष, शोक, विस्मयादिबोधक आदि भावों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति को ही विप्सा अलंकार कहते है।

उदाहरण :– 

मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधामय।

राधा मन मोहि-मोहि मोहन मयी-मयी।।

  1. वक्रोक्ति अलंकार

जहाँ पर वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का श्रोता अलग अर्थ निकाले उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते है।

वक्रोक्ति अलंकार के भेद :-

काकु वक्रोक्ति अलंकार

श्लेष वक्रोक्ति अलंकार

  1. काकु वक्रोक्ति अलंकार:– जब वक्ता के द्वारा बोले गये शब्दों का उसकी कंठ ध्वनी के कारण श्रोता कुछ और अर्थ निकाले वहाँ पर काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण :- मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।

  1. श्लेष वक्रोक्ति अलंकार :- जहाँ पर श्लेष की वजह से वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का अलग अर्थ निकाला जाये वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण :– 

को तुम हौ इत आये कहाँ घनस्याम हौ तौ कितहूँ बरसो।

चितचोर कहावत है हम तौ तहां जाहुं जहाँ धन सरसों।।

  1. श्लेष अलंकार –

जहाँ पर कोई एक शब्द एक ही बार आये पर उसके अर्थ अलग अलग निकलें वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है।

श्लेष अलंकार के उदाहरण –

उदाहरण :– 

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।

पानी गए न उबरै मोती मानस चून।।

श्लेष अलंकार के भेद – 

अभंग श्लेष अलंकार

सभंग श्लेष अलंकार

  1. अभंग श्लेष अलंकार :- जिस अलंकार में शब्दों को बिना तोड़े ही एक से अधिक या अनेक अर्थ निकलते हों वहां पर अभंग श्लेष अलंकार होता है।

उदाहरण :- 

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।

पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।।

  1. सभंग श्लेष अलंकार :– जिस अलंकार में शब्दों को तोडना बहुत अधिक आवश्यक होता है क्योंकि शब्दों को तोड़े बिना उनका अर्थ न निकलता हो वहां पर सभंग श्लेष अलंकार होता है।

उदाहरण :– सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित।

  1. अर्थालंकार

जहाँ पर अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ अर्थालंकार होता है।

अर्थालंकार के भेद – 

  1. उपमा अलंकार
  2. रूपक अलंकार
  3. उत्प्रेक्षा अलंकार
  4. द्रष्टान्त अलंकार
  5. संदेह अलंकार
  6. अतिश्योक्ति अलंकार
  7. उपमेयोपमा अलंकार
  8. प्रतीप अलंकार
  9. अनन्वय अलंकार
  10. भ्रांतिमान अलंकार
  11. दीपक अलंकार
  12. अपहृति अलंकार
  13. व्यतिरेक अलंकार
  14. विभावना अलंकार
  15. विशेषोक्ति अलंकार
  16. अर्थान्तरन्यास अलंकार
  17. उल्लेख अलंकार
  18. विरोधाभाष अलंकार
  19. असंगति अलंकार
  20. मानवीकरण अलंकार
  21. अन्योक्ति अलंकार
  22. काव्यलिंग अलंकार
  23. स्वभावोती अलंकार
  24. उपमा अलंकार –

उपमा शब्द का अर्थ होता है – तुलना। जब किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना किसी दूसरे यक्ति या वस्तु से की जाए वहाँ पर उपमा अलंकार होता है।

उपमा अलंकार के उदाहरण –

उदाहरण :-

सागर-सा गंभीर ह्रदय हो,

गिरी-सा ऊँचा हो जिसका मन।

उपमा अलंकार के अंग – 

  1. उपमेय
  2. उपमान
  3. वाचक शब्द
  4. साधारण धर्म
  1. उपमेय :– उपमेय का अर्थ होता है – उपमा देने के योग्य। अगर जिस वस्तु की समानता किसी दूसरी वस्तु से की जाये वहाँ पर उपमेय होता है।
  2. उपमान :– उपमेय की उपमा जिससे दी जाती है उसे उपमान कहते हैं। अथार्त उपमेय की जिस के साथ समानता बताई जाती है उसे उपमान कहते हैं।
  3. वाचक शब्द :- जब उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है तब जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसे वाचक शब्द कहते हैं।
  4. साधारण धर्म:– दो वस्तुओं के बीच समानता दिखाने के लिए जब किसी ऐसे गुण या धर्म की मदद ली जाती है जो दोनों में वर्तमान स्थिति में हो उसी गुण या धर्म को साधारण धर्म कहते हैं।
  5. रूपक अलंकार – 

जहाँ पर उपमेय और उपमान में कोई अंतर न दिखाई दे वहाँ रूपक अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर उपमेय और उपमान के बीच के भेद को समाप्त करके उसे एक कर दिया जाता है वहाँ पर रूपक अलंकार होता है।

रूपक अलंकार के उदाहरण –

उदाहरण :-

“उदित उदय गिरी मंच पर, रघुवर बाल पतंग।

विगसे संत-सरोज सब, हरषे लोचन भ्रंग।।”

रूपक अलंकार की निम्न बातें :-

उपमेय को उपमान का रूप देना।

वाचक शब्द का लोप होना।

उपमेय का भी साथ में वर्णन होना।

  1. उत्प्रेक्षा अलंकार – 

जहाँ पर उपमान के न होने पर उपमेय को ही उपमान मान लिया जाए। अथार्त जहाँ पर अप्रस्तुत को प्रस्तुत मान लिया जाए वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। अगर किसी पंक्ति में मनु, जनु, मेरे जानते, मनहु, मानो, निश्चय, ईव आदि आते हैं वहां पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

उत्प्रेक्षा अलंकार के उदाहरण –

उदाहरण :-

सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल

बाहर सोहत मनु पिये, दावानल की ज्वाल।।

उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद – 

वस्तुप्रेक्षा अलंकार

हेतुप्रेक्षा अलंकार

फलोत्प्रेक्षा अलंकार

  1. वस्तुप्रेक्षा अलंकार :– जहाँ पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना दिखाई जाए वहाँ पर वस्तुप्रेक्षा अलंकार होता है।

उदाहरण:-

“सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल।

बाहर लसत मनो पिये, दावानल की ज्वाल।।”

  1. हेतुप्रेक्षा अलंकार :- जहाँ अहेतु में हेतु की सम्भावना देखी जाती है। अथार्त वास्तविक कारण को छोडकर अन्य हेतु को मान लिया जाए वहाँ हेतुप्रेक्षा अलंकार होता है।
  2. फलोत्प्रेक्षा अलंकार :- इसमें वास्तविक फल के न होने पर भी उसी को फल मान लिया जाता है वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

उदाहरण:-

खंजरीर नहीं लखि परत कुछ दिन साँची बात।

बाल द्रगन सम हीन को करन मनो तप जात।।

  1. दृष्टान्त अलंकार

जहाँ दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होता हो वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है। इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती-जुलती बात उपमान रूप में दुसरे वाक्य में होती है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है।

उदाहरण :- 

‘एक म्यान में दो तलवारें, कभी नहीं रह सकती हैं।

किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है।।

  1. संदेह अलंकार 

जब उपमेय और उपमान में समता देखकर यह निश्चय नहीं हो पाता कि उपमान वास्तव में उपमेय है या नहीं। जब यह दुविधा बनती है , तब संदेह अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर संशय बना रहे वहाँ संदेह अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है।

उदाहरण :- 

यह काया है या शेष उसी की छाया,

क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया।

संदेह अलंकार की मुख्य बातें :-

विषय का अनिश्चित ज्ञान।

यह अनिश्चित समानता पर निर्भर हो।

अनिश्चय का चमत्कारपूर्ण वर्णन हो।

  1. अतिश्योक्ति अलंकार – 

जब किसी व्यक्ति या वस्तु का वर्णन करने में लोक समाज की सीमा या मर्यादा टूट जाये उसे अतिश्योक्ति अलंकार कहते हैं अथार्त जब किसी वस्तु का बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाये वहां पर अतिश्योक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण:- 

हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आगि।

सगरी लंका जल गई, गये निसाचर भागि।

  1. उपमेयोपमा अलंकार

इस अलंकार में उपमेय और उपमान को परस्पर उपमान और उपमेय बनाने की कोशिश की जाती है इसमें उपमेय और उपमान की एक दूसरे से उपमा दी जाती है।

उदाहरण :- तौ मुख सोहत है ससि सो अरु सोहत है ससि तो मुख जैसो।

  1. प्रतीप अलंकार

इसका अर्थ होता है उल्टा। उपमा के अंगों में उल्ट – फेर करने से अथार्त उपमेय को उपमान के समान न कहकर उलट कर उपमान को ही उपमेय कहा जाता है वहाँ प्रतीप अलंकार होता है। इस अलंकार में दो वाक्य होते हैं एक उपमेय वाक्य और एक उपमान वाक्य। लेकिन इन दोनों वाक्यों में सदृश्य का साफ कथन नहीं होता, वह व्यंजित रहता है। इन दोनों में साधारण धर्म एक ही होता है परन्तु उसे अलग-अलग ढंग से कहा जाता है।

उदाहरण :- “नेत्र के समान कमल है।”

  1. अनन्वय अलंकार

जब उपमेय की समता में कोई उपमान नहीं आता और कहा जाता है कि उसके समान वही है, तब अनन्वय अलंकार होता है।

उदाहरण :- “यद्यपि अति आरत – मारत है. भारत के सम भारत है।

  1.  भ्रांतिमान अलंकार

जब उपमेय में उपमान के होने का भ्रम हो जाये वहाँ पर भ्रांतिमान अलंकार होता है अथार्त जहाँ उपमान और उपमेय दोनों को एक साथ देखने पर उपमान का निश्चयात्मक भ्रम हो जाये मतलब जहाँ एक वस्तु को देखने पर दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाए वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी अंग माना जाता है।

उदाहरण :- 

पायें महावर देन को नाईन बैठी आय ।

फिरि-फिरि जानि महावरी, एडी भीड़त जाये।।

  1.  दीपक अलंकार

जहाँ पर प्रस्तुत और अप्रस्तुत का एक ही धर्म स्थापित किया जाता है वहाँ पर दीपक अलंकार होता है।

उदाहरण:- 

चंचल निशि उदवस रहें, करत प्रात वसिराज।

अरविंदन में इंदिरा, सुन्दरि नैनन लाज।।

  1.  अपहृति अलंकार

अपहृति का अर्थ होता है छिपाव। जब किसी सत्य बात या वस्तु को छिपाकर उसके स्थान पर किसी झूठी वस्तु की स्थापना की जाती है वहाँ अपहृति अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है।

उदाहरण :- 

“सुनहु नाथ रघुवीर कृपाला,

बन्धु न होय मोर यह काला।”

  1.  व्यतिरेक अलंकार

व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ होता है आधिक्य। व्यतिरेक में कारण का होना जरुरी है। अत: जहाँ उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहाँ पर व्यतिरेक अलंकार होता है।

उदाहरण :- का सरवरि तेहिं देउं मयंकू। चांद कलंकी वह निकलंकू।।

मुख की समानता चन्द्रमा से कैसे दूँ?

  1.  विभावना अलंकार

जहाँ पर कारण के न होते हुए भी कार्य का हुआ जाना पाया जाए वहाँ पर विभावना अलंकार होता है।

उदाहरण :-

बिनु पग चलै सुनै बिनु काना।

कर बिनु कर्म करै विधि नाना।

आनन रहित सकल रस भोगी।

बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी।

  1.  विशेषोक्ति अलंकार

काव्य में जहाँ कार्य सिद्धि के समस्त कारणों के विद्यमान रहते हुए भी कार्य न हो वहाँ पर विशेषोक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण :- 

नेह न नैनन को कछु, उपजी बड़ी बलाय।

नीर भरे नित-प्रति रहें, तऊ न प्यास बुझाई।।

  1.  अर्थान्तरन्यास अलंकार

जब किसी सामान्य कथन से विशेष कथन का अथवा विशेष कथन से सामान्य कथन का समर्थन किया जाये वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है।

उदाहरण :- 

बड़े न हूजे गुनन बिनु, बिरद बडाई पाए।

कहत धतूरे सों कनक, गहनो गढ़ो न जाए।।

  1.  उल्लेख अलंकार

जहाँ पर किसी एक वस्तु को अनेक रूपों में ग्रहण किया जाए, तो उसके अलग-अलग भागों में बटने को उल्लेख अलंकार कहते हैं। अथार्त जब किसी एक वस्तु को अनेक प्रकार से बताया जाये वहाँ पर उल्लेख अलंकार होता है।

उदाहरण :- विन्दु में थीं तुम सिन्धु अनन्त एक सुर में समस्त संगीत।

  1.  विरोधाभाष अलंकार

जब किसी वस्तु का वर्णन करने पर विरोध न होते हुए भी विरोध का आभाष हो वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है।

उदाहरण :- 

‘आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के।

शून्य हूँ जिसमें बिछे हैं पांवड़े पलकें।’

  1.  असंगति अलंकार

जहाँ आपतात: विरोध दृष्टिगत होते हुए, कार्य और कारण का वैयाधिकरन्य रणित हो वहाँ पर असंगति अलंकार होता है।

उदाहरण :- “ह्रदय घाव मेरे पीर रघुवीरै।”

  1.  मानवीकरण अलंकार

जहाँ पर काव्य में जड़ में चेतन का आरोप होता है वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है अथार्त जहाँ जड़ प्रकृति पर मानवीय भावनाओं और क्रियांओं का आरोप हो वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है। जब प्रकृति के द्वारा निर्मित चीजों में मानवीय भावनाओं के होने का वर्णन किया जाए वहां पर मानवीकरण अलंकार होता है।

उदाहरण :- बीती विभावरी जागरी, अम्बर पनघट में डुबो रही तास घट उषा नगरी।

  1.  अन्योक्ति अलंकार

जहाँ पर किसी उक्ति के माध्यम से किसी अन्य को कोई बात कही जाए वहाँ पर अन्योक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण :- फूलों के आस-पास रहते हैं, फिर भी काँटे उदास रहते हैं।

  1.  काव्यलिंग अलंकार

जहाँ पर किसी युक्ति से समर्थित की गयी बात को काव्यलिंग अलंकार कहते हैं अथार्त जहाँ पर किसी बात के समर्थन में कोई-न-कोई युक्ति या कारण जरुर दिया जाता है।

उदाहरण :- 

कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।

उहि खाय बौरात नर, इहि पाए बौराए।।

  1.  स्वभावोक्ति अलंकार

किसी वस्तु के स्वाभाविक वर्णन को स्वभावोक्ति अलंकार कहते हैं।

उदाहरण :- 

सीस मुकुट कटी काछनी, कर मुरली उर माल।

इहि बानिक मो मन बसौ, सदा बिहारीलाल।।

  1. उभयालंकार

जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित रहकर दोनों को चमत्कारी करते हैं वहाँ उभयालंकार होता है।

उदाहरण :- ‘कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय।’

Class 7 हिन्दी व्याकरण – अनुच्छेद 

अनुच्छेद

अनुच्छेद-लेखन की परिभाषा: 

किसी एक भाव या विचार को व्यक्त करने के लिए लिखे गये सम्बद्ध और लघु वाक्य-समूह को अनुच्छेद-लेखन कहते हैं।

अथवा

किसी घटना, दृश्य अथवा विषय को संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित ढंग से जिस लेखन-शैली में प्रस्तुत किया जाता है, उसे अनुच्छेद-लेखन कहते हैं।

‘अनुच्छेद’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘Paragraph’ शब्द का हिंदी पर्याय है। अनुच्छेद ‘निबंध’ का संक्षिप्त रूप होता है। इसमें किसी विषय के किसी एक पक्ष पर 80 से 100 शब्दों में अपने विचार व्यक्त किए जाते हैं।

अनुच्छेद में हर वाक्य मूल विषय से जुड़ा रहता है। अनावश्यक विस्तार के लिए उसमें कोई स्थान नहीं होता। अनुच्छेद में घटना अथवा विषय से सम्बद्ध वर्णन संतुलित तथा अपने आप में पूर्ण होना चाहिए।

अनुच्छेद की भाषा-शैली सजीव एवं प्रभावशाली होनी चाहिए। शब्दों के सही चयन के साथ लोकोक्तियों एवं मुहावरों के समुचित प्रयोग से ही भाषा-शैली में उपर्युक्त गुण आ सकते हैं।

इसका मुख्य कार्य किसी एक विचार को इस तरह लिखना होता है, जिसके सभी वाक्य एक-दूसरे से बंधे होते हैं। एक भी वाक्य अनावश्यक और बेकार नहीं होना चाहिए।

कार्य

अनुच्छेद अपने-आप में स्वतन्त्र और पूर्ण होते हैं। अनुच्छेद का मुख्य विचार या भाव की कुंजी या तो आरम्भ में रहती है या अन्त में। उच्च कोटि के अनुच्छेद-लेखन में मुख्य विचार अन्त में दिया जाता है।

अनुच्छेद लिखते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए

  • अनुच्छेद लेखन में संकेत-बिंदु या रूपरेखा अवश्य बनानी चाहिए।
  • विषय से बाहर कुछ भी नहीं लिखना चाहिए। 
  • अनुच्छेद लेखन में अनावश्यक विस्तार से बचें। 
  • संकेत बिंदुों को ध्यान में रख कर ही लिखना चाहिए।
  • अनुच्छेद लिखने की भाषा शैली सरल, सहज, सजीव, प्रभावशाली व पठनीय होनी चाहिए।
  • छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग बहुत अच्छा होता है।
  • विराम चिन्ह, कोमा आदि का ध्यान रखना चाहिए।
  • शब्द सीमा 100 से 120 से अधिक नहीं होनी चाहिए।
  • अनुच्छेद में विषय के किसी एक ही पक्ष का वर्णन करें।
  • अनुच्छेद-लेखन में विषय से संबंधित विचारों को क्रमवार तरीके से रखा जाता है। ताकि उसे पूर्णता दी जा सके। विषय से हट कर किसी भी बात का उल्लेख नहीं करना चाहिए।
  • अनुच्छेद लेखन में मुख्य विचार अन्त में अवश्य लिखा जाता है।
  • अनुच्छेद लेखन में कहावतें, मुहावरों, सूक्ति, कवितायें आदि का प्रयोग भी किया जा सकता है।

अनुच्छेद की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है

  1. अनुच्छेद किसी एक भाव या विचार या तथ्य को एक बार, एक ही स्थान पर व्यक्त करता है। इसमें अन्य विचार नहीं रहते।
  2. अनुच्छेद के वाक्य-समूह में उद्देश्य की एकता रहती है। अप्रासंगिक बातों को हटा दिया जाता है।
  3. अनुच्छेद के सभी वाक्य एक-दूसरे से गठित और सम्बद्ध होते है।
  4. अनुच्छेद एक स्वतन्त्र और पूर्ण रचना है, जिसका कोई भी वाक्य अनावश्यक नहीं होता।
  5. उच्च कोटि के अनुच्छेद-लेखन में विचारों को इस क्रम में रखा जाता है कि उनका आरम्भ, मध्य और अन्त आसानी से व्यक्त हो जाय।
  6. अनुच्छेद सामान्यतः छोटा होता है, किन्तु इसकी लघुता या विस्तार विषयवस्तु पर निर्भर करता है।
  7. अनुच्छेद की भाषा सरल और स्पष्ट होनी चाहिए।

यहाँ निम्नलिखित अनुच्छेदों दिया  हैं

  1. समय किसी के लिए नहीं रुकता

समय’ निरंतर बीतता रहता है, कभी किसी के लिए नहीं ठहरता। जो व्यक्ति समय के मोल को पहचानता है, वह अपने जीवन में उन्नति प्राप्त करता है। समय बीत जाने पर कार्य करने से भी फल की प्राप्ति नहीं होती और पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं आता। जो विद्यार्थी सुबह समय पर उठता है, अपने दैनिक कार्य समय पर करता है तथा समय पर सोता है, वही आगे चलकर सफलता व उन्नति प्राप्त करता है। जो व्यक्ति आलस में आकर समय गँवा देता है, उसका भविष्य अंधकारमय हो जाता है। संतकवि कबीरदास जी ने भी कहा है :

”काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलै होइगी, बहुरि करेगा कब।।”

समय का एक-एक पल बहुत मूल्यवान है और बीता हुआ पल वापस लौटकर नहीं आता। इसलिए समय का महत्व पहचानकर प्रत्येक विद्यार्थी को नियमित रूप से अध्ययन करना चाहिए और अपने लक्ष्य की प्राप्ति करनी चाहिए। जो समय बीत गया उस पर वर्तमान समय बरबाद न करके आगे की सुध लेना ही बुद्धिमानी है।

  1. अभ्यास का महत्त्व

यदि निरंतर अभ्यास किया जाए, तो असाध्य को भी साधा जा सकता है। ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बुद्धि दी है। उस बुद्धि का इस्तेमाल तथा अभ्यास करके मनुष्य कुछ भी सीख सकता है। अर्जुन तथा एकलव्य ने निरंतर अभ्यास करके धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त की। उसी प्रकार वरदराज ने, जो कि एक मंदबुद्धि बालक था, निरंतर अभ्यास द्वारा विद्या प्राप्त की और ग्रंथों की रचना की। उन्हीं पर एक प्रसिद्ध कहावत बनी :

”करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।

रसरि आवत जात तें, सिल पर परत निसान।।”

यानी जिस प्रकार रस्सी की रगड़ से कठोर पत्थर पर भी निशान बन जाते हैं, उसी प्रकार निरंतर अभ्यास से मूर्ख व्यक्ति भी विद्वान बन सकता है। यदि विद्यार्थी प्रत्येक विषय का निरंतर अभ्यास करें, तो उन्हें कोई भी विषय कठिन नहीं लगेगा और वे सरलता से उस विषय में कुशलता प्राप्त कर सकेंगे।

  1. विद्यालय की प्रार्थना-सभा

प्रत्येक विद्यार्थी के लिए प्रार्थना-सभा बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। प्रत्येक विद्यालय में सबसे पहले प्रार्थना-सभा का आयोजन किया जाता है। इस सभा में सभी विद्यार्थी व अध्यापक-अध्यापिकाओं का सम्मिलित होना अत्यावश्यक होता है। प्रार्थना-सभा केवल ईश्वर का ध्यान करने के लिए ही नहीं होती, बल्कि यह हमें अनुशासन भी सिखाती है।

हमारे विद्यालय की प्रार्थना-सभा में ईश्वर की आराधना के बाद किसी एक कक्षा के विद्यार्थियों द्वारा किसी विषय पर कविता, दोहे, विचार, भाषण, लघु-नाटिका आदि प्रस्तुत किए जाते हैं व सामान्य ज्ञान पर आधारित जानकारी भी दी जाती है, जिससे सभी विद्यार्थी लाभान्वित होते हैं।

जब कोई त्योहार आता है, तब विशेष प्रार्थना-सभा का आयोजन किया जाता है। प्रधानाचार्या महोदया भी विद्यार्थियों को सभा में संबोधित करती हैं तथा विद्यालय से संबंधित महत्त्वपूर्ण घोषणाएँ भी करती हैं।

प्रत्येक विद्यार्थी को प्रार्थना-सभा में पूर्ण अनुशासनबद्ध होकर विचारों को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। प्रार्थना-सभा का अंत राष्ट्र-गान से होता है। सभी विद्यार्थियों को प्रार्थना-सभा का पूर्ण लाभ उठाना चाहिए व सच्चे, पवित्र मन से इसमें सम्मिलित होना चाहिए।

  1. मीठी बोली का महत्त्व

‘वाणी’ ही मनुष्य को अप्रिय व प्रिय बनाती है। यदि मनुष्य मीठी वाणी बोले, तो वह सबका प्यारा बन जाता है और उसमें अनेक गुण होते हुए भी यदि उसकी बोली मीठी नहीं है, तो उसे कोई पसंद नहीं करता।

इस तथ्य को कोयल और कौए के उदाहरण द्वारा सबसे भली प्रकार से समझा जा सकता है। दोनों देखने में समान होते हैं, परंतु कौए की कर्कश आवाज और कोयल की मधुर बोली दोनों की अलग-अलग पहचान बनाती है, इसलिए कौआ सबको अप्रिय और कोयल सबको प्रिय लगती है।

”कौए की कर्कश आवाज और कोयल की मधुर वाणी सुन।

सभी जान जाते हैं, दोनों के गुण।।”

मनुष्य अपनी मधुर वाणी से शत्रु को भी अपना बना सकता है। ऐसा व्यक्ति समाज में बहुत आदर पाता है। विद्वानों व कवियों ने भी मधुर वचन को औषधि के समान कहा है। मधुर बोली सुनने वाले व बोलने वाले दोनों के मन को शांति मिलती है। इससे समाज में प्रेम व भाईचारे का वातावरण बनता है। अतः सभी को मीठी बोली बोलनी चाहिए तथा अहंकार व क्रोध का त्याग करना चाहिए।

  1. रेलवे प्लेटफार्म पर आधा घण्टा

रेलवे स्टेशन एक अद्भुत स्थान है। यहाँ दूर-दूर से यात्रियों को लेकर गाड़ियाँ आती है और अन्य यात्रियों को लेकर चली जाती है। एक प्रकार से रेलवे स्टेशन यात्रियों का मिलन-स्थल है। अभी कुछ दिन पूर्व मैं अपने मित्र की अगवानी करने स्टेशन पर गया। प्लेटफार्म टिकट लेकर मैं स्टेशन के अंदर चला गया।

प्लेटफार्म नं. 3 पर गाड़ी को आकर रुकना था। मैं लगभग आधा घण्टा पहले पहुँच गया था, अतः वहाँ प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त कोई चारा न था। मैंने देखा कि प्लेटफार्म पर काफी भीड़ थी। लोग बड़ी तेजी से आ-जा रहे थे।

कुली यात्रियों के साथ चलते हुए सामान को इधर-उधर पहुँचा रहे थे। पुस्तकों और पत्रिकाओं में रुचि रखने वाले कुछ लोग बुक-स्टाल पर खड़े थे, पर अधिकांश लोग टहल रहे थे। कुछ लोग राजनीतिक विषयों पर गरमागरम बहस में लीन थे।

चाय वाला ‘चाय-चाय’ की आवाज लगाता हुआ घूम रहा था। कुछ लोग उससे चाय लेकर पी रहे थे। पूरी-सब्जी की रेढ़ी के इर्द-गिर्द भी लोग जमा थे। महिलाएँ प्रायः अपने सामान के पास ही बैठी थीं। बीच-बीच में उद्घोषक की आवाज सुनाई दे जाती थी। तभी उद्घोषणा हुई कि प्लेटफार्म न. 3 पर गाड़ी पहुँचने वाली है।

चढ़ने वाले यात्री अपना-अपना सामान सँभाल कर तैयार हो गए। कुछ ही क्षणों में गाड़ी वहाँ आ पहुँची। सारे प्लेटफार्म पर हलचल-सी मच गई। गाड़ी से जाने वाले लोग लपककर चढ़ने की कोशिश करने लगे। उतरने वाले यात्रियों को इससे कठिनाई हुई। कुछ समय बाद यह धक्कामुक्की समाप्त हो गई। मेरा मित्र तब तक गाड़ी से उतर आया था। उसे लेकर मैं घर की ओर चल दिया।

  1. मित्र के जन्म दिन का उत्सव

मेरे मित्र रोहित का जन्म-दिन था। उसने अन्य लोगों के साथ मुझे भी बुलाया। रोहित के कुछ रिश्तेदार भी आए हुए थे, किन्तु अधिकतर मित्र ही उपस्थित थे। घर के आँगन में ही समारोह का आयोजन किया गया था। उस स्थान को सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया गया था। झण्डियाँ और गुब्बारे टाँगे गए थे।

आँगन में लगे एक पेड़ पर रंग-बिरंगे बल्ब जगमग कर रहे थे। जब मैं पहुँचा तो मेहमान आने शुरू ही हुए थे। मेहमान रोहित के लिए कोई-न-कोई उपहार लेकर आते; उसके निकट जाकर बधाई देते; रोहित उनका धन्यवाद करता। क्रमशः लोग छोटी-छोटी टोलियों में बैठकर गपशप करने लगे। संगीत की मधुर ध्वनियाँ गूँज रही थीं।

एक-दो मित्र उठकर नृत्य की मुद्रा में थिरकने लगे। कुछ मित्र उस लय में अपनी तालियों का योगदान देने लगे। चारों ओर उल्लास का वातावरण था।

सात बजे के लगभग केक काटा गया। सब मित्रों ने तालियाँ बजाई और मिलकर बधाई का गीत गाया। माँ ने रोहित को केक खिलाया। अन्य लोगों ने भी केक खाया। फिर सभी खाना खाने लगे। खाने में अनेक प्रकार की मिठाइयाँ और नमकीन थे। चुटकुले कहते-सुनते और बातें करते काफी देर हो गई।

तब हमने रोहित को एक बार फिर बधाई दी, उसकी दीर्घायु की कामना की और अपने-अपने घर को चल दिए। वह कार्यक्रम इतना अच्छा था कि अब भी स्मरण हो आता है।