अध्याय-6: जीवों में श्वसन

श्वसन
सभी जीवों के जीवित रहने के लिए अनिवार्य है। यह जीव द्वारा लिए गए भोजन से ऊर्जा को निर्मुक्त करता है। सजीवों द्वारा वायु अंदर लेने और बाहर निकालने की प्रक्रिया को श्वसन कहते हैं। श्वसन के समय जो वायु हम अंदर लेकर जाते हैं उसमें ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा होती है और जो वायु हम बाहर निकालते हैं उसमें कार्बन डाइऑक्साइड की पर्याप्त मात्रा होती है। इस प्रकार हम श्वसन के समय ऑक्सीजन लेते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। यह ऑक्सीजन हमारे भोजन के साथ मिल कर हमें ऊर्जा प्रदान करती है। जब हम सांस लेते हैं तो हवा में अन्य कई प्रकार की गैस भी हमारे शरीर के अंदर जाती है. लेकिन उसमें से सिर्फ ऑक्सीजन को हमारा शरीर ले लेता है. और बाकि गैस को बाहर निकाल देता है. जिसमें सबसे ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड होता है. सांस को अंदर लेना और बाहर छोड़ने की पूरी प्रक्रिया को श्वसन तंत्र द्वारा किया जाता है
श्वसन द्वारा जो वायु शरीर के अंदर लेते हैं, उसमें उपस्थित ऑक्सीजन का उपयोग ग्लूकोस को कार्बन डाइऑक्साइड और जल में विखंडन के लिए किया जाता हैं, यह प्रक्रम में ऊर्जा निर्मुक्त होती है।
भोजन के ऑक्सीकरण का प्रक्रम बहुत जटिल है। इसमें जटिल जैव रासायनिक अभिक्रियाओं की श्रेणी शामिल है और मुक्त ऊर्जा ATP अणु के रूप में संग्रहित हो जाती है। सरलतम रूप के लिए इस बहुपदीय अभिक्रिया को निम्न प्रकार सूक्ष्म रूप में व्यक्त किया जा सकता है –
C6H12O6 + 6O2 → 6CO2 + 6H2O + energy
श्वसन के प्रकार:-
- बाह्य श्वसन
- आन्तरिक श्वसन
बाह्य श्वसन
जब प्रश्वसित वायु (सांस के साथ अंदर ली हुई) वायुकोषों में पहुंचती है तब यह वायुकोषों के चारों ओर स्थित फुफ्फुसीय धमनियों के कोशिकीय जाल में मौजूद रक्त के नजदीकी सम्पर्क में रहती है। 100 मिलीमीटर पारे के दाब पर वायुकोषों में मौजूद ऑक्सीजन 40 मिलीमीटर पारे के दाब पर शिरीय रक्त में मौजूद ऑक्सीजन के सम्पर्क में आती है। इसलिए जब तक दोनों दाब बराबर नहीं हो जाते, गैस रक्त में फैलती रहती है। इसी समय रक्त में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड 46 मिलीमीटर पारे के दाब पर वायुकोषीय कार्बन डाइऑक्साइड के सम्पर्क में 40 मिलीमीटर. पारे के दाब पर आती है और गैस रक्त के बाहर फैलकर वायुकोषों में आ जाती है। इस प्रकार निःश्वसित (सांस के साथ बाहर छोड़ी गई) वायु की गैसीय संरचना बदल जाती है अर्थात् इसमें ऑक्सीजन कम और कार्बन डाइऑक्साइड अधिक रहती है लेकिन नाइट्रोजन की मात्र बराबर रहती है।
आन्तरिक श्वसन
बाह्य श्वसन में वायुकोषों में मौजूद ऑक्सीजन फैलकर धमनियों की कोशिकाओं के रक्त में मिल जाती है। कुछ ऑक्सीजन रक्त प्लाज्मा में घुल जाती है तथा बाकी हीमोग्लोबिन से संयुक्त हो जाती है, जिसे ऑक्सीहीमोग्लोबिन कहते हैं। यह शुद्ध रक्त माना जाता है और यह शुद्ध रक्त फुफ्फुसीय शिराओं द्वारा हृदय के बाएं अलिंद में पहुंचता है। फिर बाएं निलय में पहुंचकर महाधमनी और इसकी शाखाओं एवं उपशाखाओं से होता हुआ पूरे शरीर में फैल जाता है। शरीर की ऊतक कोशिकाओं और धमनीय रक्त कोशिकाओं के रक्त के बीच गैसों का आदान-प्रदान होता है। यहां ऊतक कोशिकाओं में ऑक्सीजन का दाब कम रहता है, जिससे विसरण (फैलाव) द्वारा रक्त की ऑक्सीजन कोशिकाओं की भित्तियों को पार करके ऊतक कोशिकाओं में चली जाती है। इसकी मात्र ऊतकों की सक्रियता पर निर्भर करती है। इसी समय, ऊतकों में बनी कार्बन डाइऑक्साइड (कार्बोहाइड्रेट एवं वसा के चयापचय का एक त्याज्य पदार्थ) फैलते हुए कोशिकाओं के रक्त में पहुंच जाती है। इस प्रकार रक्त और ऊतक कोशिकाओं के बीच गैसों का आदान-प्रदान अर्थात आतंरिक श्वसन होता है। इन कोशिकाओं का कार्बन डाइऑक्साइड युक्त अर्थात अशुद्ध रक्त क्रमशः बड़ी शिराओं से होता हुआ अंत में ऊर्ध्व एवं निम्न महाशिराओं द्वारा हृदय के दाएं अलिंद में पहुंचता है।
कोशिकीय श्वसन
कोशिका में भोजन के विखंडन के प्रक्रम में ऊर्जा होती है, जिसे कोशिकीय श्वसन कहते हैं। सभी जीवों की कोशिकाओं में कोशिकीय श्वसन होता है। कोशिकीय श्वसन वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से कोशिकाएं शर्करा को ऊर्जा में परिवर्तित करती हैं। बिजली सेलुलर प्रतिक्रियाओं के लिए एटीपी और ऊर्जा के अन्य रूपों को बनाने के लिए, कोशिकाओं को ईंधन और एक इलेक्ट्रॉन स्वीकर्ता की आवश्यकता होती है जो ऊर्जा को एक उपयोगी रूप में बदलने की रासायनिक प्रक्रिया को संचालित करता है।
वायवीय श्वसन:- जब ग्लूकोस का विखंडन ऑक्सीजन के उपयोग द्वारा होता है, तो यह वायवीय श्वसन कहलाता है। इस क्रिया के द्वारा एक अणु ग्लूकोज से दो अणु पायरुवेट का निर्माण होता है। यह प्रक्रिया कोशिका द्रव्य में होती है।
यह आण्विक ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है। यह भोजन को पूरी तरह जल और कार्बन डाइ ऑक्साइड में ऑक्सीकृत कर देता है और अधिक मात्रा में ऊर्जा मुक्त होती है।
C6H12O6 + 6O2 → 6CO2 + 6H2O + 2830 kJ
यह अधिकांश जन्तुओ और पादपों में पाया जाता है।
अवायवीय श्वसन ;- ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में भी भोजन विखंडित हो सकता है, यह प्रक्रम अवायवीय श्वसन कहलाता है। भोजन के विखंडन से ऊर्जा निमूर्क्त होती है। वायवीय श्वसन में प्रथम चरण में बना पायरुवेट पूर्ण ऑक्सीजन की उपस्थिति में माइटोकॉन्ड्रिया में चला जाता है। माइटोकॉन्ड्रिया में तीन कार्बन वाले पायरुवेट अणु का विखंडन होता है जिससे तीन कार्बन डाइऑक्साइड के अणु बनते हैं। इसके साथ-साथ जल तथा रासायनिक ऊर्जा भी मुक्त होती है।
यह आण्विक ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है और किण्वन कहलाता है। इसमें भोजन का आंशिक ऑक्सीकरण होता है और ऊर्जा का केवल एक भाग (5%) ही मुक्त होता है और बची हुई ऊर्जा अन्तमध्यस्थ यौगिको में संचित होती है। यह निम्नतर प्राणियों जैसे अवायवीय बैक्टीरिया, यीस्ट कुछ परजीवी कृमियो (एस्केरिस, टीनिया) में पाया जाता है।
C6H12O6 → 2C2H5OH + 2CO2 + 118 kJ
C6H12O6 → 2CH3CHOHCOOH + energy (CO2 मुक्त नहीं होता)
यीस्ट एक-कोशिका जीव है। यह अवायवीय रूप से श्वसन करते है इस प्रक्रिया के समय ऐल्कोहॉल निर्मित करते हैं।
व्यायाम करते समय हमारे शरीर की कुछ पेशियाँ अवायवीय द्वारा श्वसन की अतिरिक्त माँग को पूरा करती हैं।
अनेक जीव, वायु की अनुपस्थिति में जीवित रह सकते है।
ऑक्सीजन से समृद्ध वायु को अंदर खींचना और कार्बन डाइऑक्साइड से समृद्ध वायु को बाहर निकलना।
ऑक्सीजन से समृद्ध वायु को बाहर निकालना अंत: श्वसन कहलाता है।
उच्छवसन:- कार्बन डाइऑक्साइड से समृद्ध वायु को बाहर निकालना उच्छवसन
कहलाता है।
श्वसन दर:- कोई व्यक्ति एक मिनट में जितनी बार श्वसन करता है, वह उसकी श्वसन दर कहलाती है। श्वसन दर मनुष्य द्वारा प्रति मिनट ली गई सांसों की संख्या है. वयस्कों के लिए सामान्य श्वसन दर 12 से 20 श्वास प्रति मिनट होती है. बच्चों के लिए सामान्य श्वसन दर उम्र के अनुसार बदलती रहती है. श्वसन ऑक्सीजन और कार्बन-डाई-ऑक्साइड रिलीज का प्रोसेस है. श्वसन दर हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकती है. इसकी एक सीमा होती है, जिसे
डॉक्टर सामान्य मानते हैं, जैसे – स्वस्थ वयस्कों के लिए सामान्य श्वसन दर 12 से 20 श्वास प्रति मिनट के बीच होती है. इस सांस लेने की दर में कार्बन-डाई-ऑक्साइड फेफड़ों से उसी दर से बाहर निकलती है. 12 से नीचे या 20 से ऊपर की श्वास दर खतरे का संकेत हो सकती है. श्वसन ड्राइव को तीन प्रकार से बांटा गया हैं
साँस का अर्थ:- एक अंत: श्वसन और एक उच्छवसन।
कोई वयस्क व्यक्ति विश्राम की अवस्था में एक मिनट में औसतन 15-18 बार साँस अंदर लेता है और बाहर निकालता है। अधिक व्यायाम करने में श्वसन दर 25 बार प्रति मिनट तक बढ़ सकती है। सामान्य व्यक्ति हर मिनट 15 बार सांस लेता छोड़ता है। पूरे दिन में लगभग 21,600 बार सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया करता है.
हम श्वसन कैसे लेते:- हम अपने नथुनों (नासा-द्वार) अंदर लेते हैं। नाक और मुंह उद्घाटन जो बाहरी हवा को फेफड़ों में जाने की अनुमति देते हैं।
ग्रसनी (गला): नाक और मुंह से स्वरयंत्र तक हवा को निर्देशित करता है। स्वरयंत्र (वॉयस बॉक्स): वायु को श्वासनली की ओर निर्देशित करता है और इसमें स्वर के लिए मुखर तार होते हैं। श्वासनली (विंडपाइप): बाएं और दाएं ब्रोन्कियल ट्यूबों में विभाजित होती है जो बाएं और दाएं फेफड़ों में हवा को निर्देशित करती है।
फेफड़े: छाती गुहा में युग्मित अंग जो रक्त और वायु के बीच गैस विनिमय को सक्षम करते हैं। फेफड़ों को पांच पालियों में बांटा गया है। ब्रोन्कियल ट्यूब: फेफड़ों के भीतर नलिकाएं जो हवा को ब्रोंचीओल्स में निर्देशित करती हैं और फेफड़ों से हवा को बाहर निकलने देती हैं।
लंग्स में एयर सैक के चारों तरफ रक्त कोशिकाएं होती हैं जिसे कैपिलरी कहते हैं। जब हम ऑक्सीजन को लेते हैं तो वो एयर सैक के जरिए रक्त कोशिकाओं में पहुंचती है,इसे डिफ्यूजन कहा जाता है और इस तरह से ऑक्सीजन पूरी शरीर में पहुंच जाता है।
ब्रोन्कियल ट्यूब: फेफड़ों के भीतर नलिकाएं जो हवा को ब्रोंचीओल्स में निर्देशित करती हैं और फेफड़ों से हवा को बाहर निकलने देती हैं। ब्रोंकाइटिस फेफड़ों में ब्रोंची (बड़े और मध्यम आकार के वायुमार्ग) की सूजन है। लक्षणों में श्लेष्म खांसी, घरघराहट, सांस की तकलीफ, और सीने में असुविधा शामिल है। ब्रोंकाइटिस को दो प्रकार में विभाजित किया जाता है: तीव्र और पुरानी। तीव्र ब्रोंकाइटिस को छाती ठंड के रूप में भी जाना जाता है।
तीव्र ब्रोंकाइटिस में आमतौर पर खांसी होती है जो लगभग तीन सप्ताह तक चलती है। 90% से अधिक मामलों में कारण वायरल संक्रमण है। जब लोग खांसी या सीधे संपर्क करते हैं तो ये वायरस हवा के माध्यम से फैल सकते हैं। जोखिम कारकों में तम्बाकू धुएं, धूल और अन्य वायु प्रदूषण के संपर्क में शामिल हैं। कुछ मामलों में वायु प्रदूषण या बैक्टीरिया जैसे माइकोप्लाज्मा न्यूमोनिया या बोर्डेटेला पेटसुसिस के उच्च स्तर के कारण हैं। तीव्र ब्रोंकाइटिस के उपचार में आमतौर पर आराम, पैरासिटामोल (एसिटामिनोफेन), और बुखार में मदद करने के लिए एनएसएड्स शामिल होते हैं।
ब्रोन्किओल्स:- फेफड़ों के भीतर छोटी ब्रोन्कियल नलिकाएं जो वायु को छोटे वायुकोशों में निर्देशित करती हैं जिन्हें एल्वियोली कहा जाता है।
एल्वियोली: ब्रोन्किओल टर्मिनल थैली जो केशिकाओं से घिरी होती है और फेफड़ों की श्वसन सतह होती है।
पल्मोनरी धमनियां: रक्त वाहिकाएं जो ऑक्सीजन-रहित रक्त को हृदय से फेफड़ों तक ले जाती हैं।
फुफ्फुसीय शिराएँ: रक्त वाहिकाएँ जो फेफड़ों से ऑक्सीजन युक्त रक्त को वापस हृदय तक पहुँचाती हैं।
मानव श्वसन तंत्र (Human Respiratory System)
मानव में मुख्य रूप से श्वसन तंत्र को तीन भागों में विभक्त किया गया है – ऊपरी श्वसन तंत्र, निचला श्वसन तंत्र तथा श्वसन मांसपेशिंया।
1 .ऊपरी श्वसन तंत्र (Upper Respiratory System)
ऊपरी श्वसन तंत्र में मुख्य रूप से नासिका, मुख, ग्रसनी, स्वरयंत्र / लेरिंग्स (Larynx) कार्य करते हैं|
(A) नासिका (Nose): यह पहला श्वसन अंग है जो बाहर दिखने वाले एक जोड़ी नासाद्वार से शुरू होता है। यह एक बड़ी गुहा के रूप में होती है जो एक पतली हड़डी व झिल्ली के द्वारा दो भागों में विभक्त होती है। नासिका गुहा का पृष्ठ भाग नासाग्रसनी (Nasopharynx) में खुलता है। नासिका गुहा में पाए जाने वाले महीन बाल, पतली झिल्ली में होने वाला रक्त प्रवाह, झाडूनुमा पक्ष्माभ (Cilia) तथा श्लेष्म आपसी सहयोग से श्वास वायु में धूल कण, पराग कण (Pollens), फरूंद आदि को दूर कर उसे शुद्ध करते हैं। इस शुद्धि के पश्चात् ही श्वास वायु फेफड़ों में प्रवेश करती है।
(B) मुख (Mouth): मुख श्वसन तंत्र में एक द्वितीयक अंग के तौर पर कार्य करता है। श्वास लेने में मुख्य भूमिका नासिका की होती है परन्तु आवश्यकता होने पर मुख भी श्वास लेने के काम आता है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि मुख से ली गई श्वास वायु नासिका से ली गई श्वास की भांति शुद्ध नहीं होती।
(C) ग्रसनी (Pharynx): ग्रसनी एक पेशीय चिमनीनुमा संरचना है जो नासिका गुहा के पृष्ठ भाग से आहारनली के ऊपरी भाग तक फैली हुई है। ग्रसनी को तीन भागों में विभक्त किया गया है – नासाग्रसनी (Nasopharynx) मुखग्रसनी (Oropharynx) तथा अधो ग्रसनी या कंठ गु सनी (Laryngopharynx)| नासाग्रसनी नासिका गुहा के पृष्ठ भाग में पाए जाने वाला ग्रसनी का प्रथम भाग है। वायु नासिका गुहा से गुजरने के पश्चात् नासाग्रसनी से होती हुई मुखग्रसनी में आती है। मुख से ली गई श्वास सीधे मुखग्रसनी में प्रवेश करती है। मुखग्रसनी से वायु कंठ – ग्रसनी से होते हुए एपिग्लॉटिस (घाँटी ढक्कन) की सहायता से स्वर यंत्र में प्रविष्ठ होती है। घांटी ढक्कन एक पल्लेनुमा लोचदार उपास्थि (Elastic cartilage) संरचना है जो श्वासनली एवं आहारनली के मध्य एक स्विच का कार्य करता है। चूंकि ग्रसनी भोजन निगलने में भी स्विच का कार्य करता है। चूंकि ग्रसनी भोजन निगलने में भी सहायक है एसे में एपिग्लॉटिस एक ढ़क्कन के तौर पर कार्य करता है तथा यह सुनिश्चत करता है कि वायु श्वासनली में ही जाए तथा भोजन आहारनली में।
(D) स्वर यंत्र / लेरिग्स (Larynx): यह कंठ ग्रसनी व श्वासनली को जोड़ने वाली एक छोटी सी संरचना है। यह नौ प्रकार की उपास्थि से मिल कर बना है। भोजन को निगलने के दौरान एपिग्लॉटिस स्वर यंत्र के, आवरण के तौर पर कार्य करती है तथा भोजन को स्वर यंत्र में जाने से रोकती है। स्वर यंत्र में स्वर – रज्जु (Vocal cord / vocal folds) नामक विशेष संरचनाएँ पाई जाती है। स्वर – रज्जु श्लेष्मा झिल्लियाँ होती हैं जो हवा के बहाव से कंपकपी पैदा कर अलग – अलग तरह की ध्वनियाँ उत्पन्न करती हैं।
2. निचला श्वसन तंत्र (Lower respiratory system)
निचले श्वसन तंत्र में मुख्यतः श्वास नली, श्वसनी / ब्रोंकाई व श्वसनिका / ब्रोन्किओल, कूपिका तथा फेफड़े कार्य करते है।
(A) श्वासनली (Trachea): यह करीब 5 इंच लंबी नली होती है जो कूटस्तरीय पक्ष्माभी स्तंभाकार उपकला (Pseudo Stratified Ciliated Columnar Epithelium) द्वारा रेखित C – आकार के उपास्थि छल्ले (C – Shaped Hyaline Cartilage) से बनी होती है। ये छल्ले श्वास नली को आपस में चिपकने से रोकते हैं तथा इसे सदैव खुला रखते हैं। श्वासनली स्वरयंत्र को ब्रोंकाई (श्वसनी) से मिलाती है तथा श्वास को गर्दन से वक्षस्थल तक पहुँचाती है। वक्षगुहा में पहुँचकर श्वासनली दाहिनी तथा बायीं ओर दो भागों में विभाजित हो अपनी तरफ के फेफड़े में प्रविष्ट हो जाती है। इन शाखाओं को प्राथमिक श्वसनी (Primary Bronchi) कहते हैं। श्वासनली में उपस्थित उपकला (Epithelium) श्लेष्मा का निर्माण करती है,जो श्वास के साथ आने वाली वायु को शुद्ध कर फेफड़ों की और अग्रेषित करती है।
(B) श्वसनी (ब्रोंकाई) व श्वसनिका (ब्रोन्किओल) (Bronchi And Bronchiole): श्वॉसनली अंत में दायीं और बाँयी ओर की श्वसनी में विभक्त होती है। प्राथमिक श्वसनी फेफड़ों में जाकर छोटी शाखाओं जिन्हे द्वितीयक श्वसनीं कहते हैं में बंट जाती हैं। प्रत्येक खण्ड में द्वितीयक श्वसनी तृतीयक श्वसनीयों में विभक्त होती है। प्रत्येक तृतीयक श्वसनी छोटी – छोटी श्वसनिका (ब्रोन्किओल) में बंट जाती है। ये ब्रोन्क्रिओल फेफड़ो में फैले रहते हैं। हर ब्रोन्किओल आगे चल के छोटी सीमांत (Terminal) ब्रोन्किओल में विभक्त होती है। श्वसनी तथा ब्रोन्किोल मिल कर एक वृक्षनुना संरचना बनाते है जो बहुत सी शाखाओं में विभक्त होती है। इन शाखाओं के अंतिम छोर पर कूपिकाएँ (Alveoli) पाए जाते है। गैसो के विनिमय इन कूपिकाओं के माध्यम से होता है।
(C) फेफड़े (Lungs): फेफड़े (फुप्फुस) लचीले, कोमल तथा हल्का गुलाबी रंग के होते है। ये एक जोड़े के रूप में शरीर के वक्ष स्थल में दांए व बांए भाग में मध्यपट के ठीक ऊपर स्थिर होते हैं। फेफड़े असंख्य श्वास नलियों, कूपिकों, रक्त वाहिनियों,लसीका वाहिनियों, लचीले तंतुओं, झिल्लियों तथा अनेकों कोशिकाओं से निर्मित हैं।
दाहिना फेफड़ा बाएँ फेफड़े से लंबाई में थोड़ा छोटा पर कुछ अधिक चौडा होता है। पुरूषों के फेफड़े स्त्रियों के फेफडों से थोड़े भारी होते है। बाँयां फेफड़ा दो खण्डों (Lobes) में तथा दाहिना तीन खण्ड में विभक्त होता है। प्रत्येक खण्ड में कई उपखण्ड होते हैं। प्रत्येक उपखण्ड अनेकों छोटे खंड़ों में विभक्त होते है जिनमें श्वास नली की शाखाएं, धमनियों व शिराओं की शाखाएँ विभाजित होते हुए एक स्वतंत्र इकाई का गठन करते है। प्रत्येक फेफड़ स्पंजी उत्तकों से बना होता है जिसमें कई केशिकाएँ (Capillaries) तथा करीब 30 मिलियन कूपिकाएँ पाई जाती है। कूपिको एक कपनुमा संरचना होती है जो सीमांत ब्रोन्किओल के आखिरी सिरे पर पाई जाती है। ये असंख्य केशिकाओं से घिरा रहता है। कूपिका में शल्की उपकला (Squariuous Epitheliurn) की पंक्तियाँ पाई जाती हैं जो केशिका में प्रवाहित रुधिर से गैसों के विनिमय में मदद करती है।
श्वसन की मांसपेशियां
डायाफ्राम: डायाफ्राम प्रमुख मांसपेशी के लिए जिम्मेदार है साँस लेने में। यह एक पतली, गुंबद के आकार की मांसपेशी है जो उदर गुहा को वक्ष गुहा से अलग करती है। साँस लेने के दौरान, डायाफ्राम सिकुड़ता है, जिससे इसका केंद्र दुम (नीचे की ओर) चलता है और इसके किनारे कपाल (ऊपर की ओर) चलते हैं। यह उदर गुहा को संकुचित करता है, पसलियों को ऊपर और बाहर की ओर उठाता है और इस प्रकार वक्ष गुहा का विस्तार करता है। यह विस्तार फेफड़ों में हवा खींचता है। जब डायाफ्राम आराम करता है, तो फेफड़ों का लोचदार हटना वक्ष गुहा को सिकुड़ने का कारण बनता है, जिससे फेफड़ों से हवा बाहर निकलती है, और अपने गुंबद के आकार में वापस आ जाती है। [१] डायाफ्राम गैर-श्वसन कार्यों में भी शामिल है, पेट के अंदर के दबाव को बढ़ाकर उल्टी, मल और मूत्र को शरीर से बाहर निकालने में मदद करता है, और अन्नप्रणाली पर दबाव डालकर एसिड भाटा को रोकता है क्योंकि यह एसोफेजियल अंतराल से गुजरता है।
इंटरकोस्टल मांसपेशियां: पसलियों के बीच स्थित मांसपेशियों के कई समूह जो सांस लेने में सहायता के लिए छाती गुहा को विस्तार और सिकोड़ने में मदद करते हैं। पेट की मांसपेशियां: हवा को तेजी से बाहर निकालने में सहायता करती हैं।
जब हम हवा को अंदर खींचते हैं तो इसमें मुख्यतः 79 प्रतिशत नाइट्रोजन, लगभग 21 प्रतिशत ऑक्सीजन तथा 0.04 प्रतिशत कार्बन-डाइ-ऑक्साइड होती है। श्वसन क्रिया में एक अणु ग्लूकोज के ऑक्सीकरण के फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड, जल वाष्प तथा लगभग 686 किलो कैलोरी ऊर्जा निकलती है
श्वसन की क्रियाविधि:
1. फुफ्फुसीय श्वसन: फेफडो में वायु भरने एवं बाहर निकालने को संवातन कहते है, यह दो क्रियाओं द्वारा होता है –
- निश्वसन (inspiration): यह सक्रीय प्रावस्था है, इसमें डायफ्राम चपटा व संकुचित हो जाता है जिससे वक्ष गुहा का आयतन बढ़ जाता है| साथ ही बाह्य अन्तरापर्शुक पेशियाँ संकुचित हो जाती है जिससे फेफडो व वक्षगुहा का वायुदाब वायुमंडलीय वायुदाब से कम हो जाता है जिससे वायु तेजी से वायुमार्ग से होती हुई फेफडो की कुपिकाओं में भर जाता है|
- उच्छाश्वसन (expiration): यह निष्क्रिय प्रावस्था है इसमें डायफ्राम व अन्तरापर्शुक पेशियाँ शिथिल हो जाती है जिससे वक्ष गुहा का आयतन कम हो जाता है जिसके कारण फेफड़ो का वायुदाब, वायुमंडलीय वायुदाब से अधिक हो जाता है| परिणामस्वरूप वायु श्वसन मार्ग से होती हुई बाहर निकल जाती है|
2. रुधिर द्वारा गैसों का परिवहन
- O2 का परिवहन: ग्रहण की गई ऑक्सीजन का 3% भाग प्लाज्मा से घुलित रूप में परिवहित होती है| शेष 97% ऑक्सीजन हीमोग्लोबिन के साथ संयुक्त होकर उत्तकों में परिवहित होती है| ऑक्सीजन हीमोग्लोबिन के साथ जुड़कर ऑक्सी हिमोग्लोबिन बनाती है जो एक अस्थायी यौगिक है| हिमोग्लोबिन के हिम समूह में 4-फेरस आयन होते है, प्रत्येक आयन से एक ऑक्सीजन अणु जुड़ सकता है| हिमोग्लोबिन के साथ ऑक्सीजन का जुड़ना, ताप, pH एवं डाइफास्फोग्लिस्रेट पर निर्भर करता है| उत्तकों व कोशिकाओं में O2 का दाब कम होने के कारण ऑक्सीहिमोग्लोबिन वियोजित हो जाता है तथा हिमोग्लोबिन व O2 मुक्त हो जाती है|
हिमोग्लोबिन के साथ संयुक्त होने वाली मात्रा PO2 पर निर्भर करती है| PO2 जितना अधिक होगा, हिमोग्लोबिन का ऑक्सीजन द्वारा संतृप्तिकरण उतना ही अधिक होगा, हिमोग्लोबिन संतृप्तिकरण प्रतिशतता एवं PO2 के मध्य सम्बन्ध को एक वक्र द्वारा प्रदर्शित किया जाता है जिसकी आकृति S के समान होती है इस वक्र को सिग्माइड वक्र या ऑक्सीजन हिमोग्लोबिन वियोजन वक्र कहते है| यह वक्र प्रदर्शित करता है की PO2 कम होते ही ऑक्सी-हिमोग्लोबिन का वियोजन बढ़ जाता है, इस वक्र के अनुसार जब PO2 का मान 95mm Hg होता है तो 97% हिमोग्लोबिन ऑक्सीजन से संतृप्त हो जाती है जब PCO2 में वृद्धि होती है तो ऑक्सीहिमोग्लोबिन से ऑक्सीजन मुक्त होने की क्रिया सुगम हो जाती है जिससे ऑक्सी-हिमोग्लोबिन वियोजन वक्र दायीं ओर विस्थापित हो जाता है इसे बोर प्रभाव कहते है|
- CO2 का परिवहन
- भौतिक विलयन के रूप में: प्लाज्मा झिल्ली द्वारा घुलित रूप में CO2 बाहर निकलती है, इस प्रक्रिया द्वारा 7% CO2 का परिवहन होता है|
- हिमोग्लोबिन के द्वारा: CO2 हिमोग्लोबिन के साथ संयुक्त होकर कार्बेमीनो हिमोग्लोबिन के रूप में परिवहित होती है, इस प्रक्रिया द्वारा 23% CO2 का परिवहन होता है|
- बाइकार्बोनेट के रूप में: लगभग 70% CO2 का परिवहन इस विधि द्वारा होता है, RBC में एंजाइम कार्बोनिक एनहाइड्रेट की उपस्थिति के कारण CO2 जल से क्रिया कर कार्बोनिक अम्ल बनाती है, यह कार्बोनिक अम्ल शीघ्र ही बाइकार्बोनेट तथा हाइड्रोजन आयनों में टूट जाता है| जितने बाइकार्बोनेट आयन RBC से निकलकर प्लाज्मा में आते है उनकी पूर्ति करने के लिए उतने ही क्लोराइड्स RBC में पहुँच जाते है, इस क्रिया को हेम बर्गर या क्लोराइड शिफ्ट कहते है|
श्वसन संबंधी रोग
- अस्थमा (दमा): अस्थमा में श्वसनी और श्वसनिकाओं की शोथ के कारण श्वसन के समय घरघराहट होती है। तथा श्वास लेने में कठिनाई होती है।
- श्वसनी शोथ: यह श्वसनिकी शोथ या सूजन है जिसके विषेष लक्षण श्वसनी में सूजन तथा जलन होना होता है जिससे लगातार खांसी होती है।
- वातस्फीति: यह एक चिरकालिक (Chronic=Long Lasting) रोग है जिसमें कूपिका भित्ति या झिल्ली क्षतिग्रस्त हो जाती है जिससे गैस विनिमय सतह घट जाती है। लगातार धूम्रपान इसके होने का मुख्य कारण है।
- तपैदिक/ क्षयरोग: तपैदिक रोग नामक जीवाणु से होती है एवं इस बीमारी में लम्बे समय तक (दो हफ्ते से ज्यादा) खांसी बनी रहती है।
- काला फुफ्फस रोग: यह बीमारी कोयले की खदानों में काम करने वाले लोगों को होती है तथा इस बीमारी में श्वास लेने में अत्यधिक परेशानी होती है।
श्वसन तंत्र की कुछ विशेष क्रियाएं
- खांसना और छींकना- खांसना और छींकना दोनों ही श्वसन संस्थान की रक्षात्मक प्रतिवर्त क्रियाएं मानी जाती हैं।
- आहे भरना, सिसकना, रोना, जम्हाई लेना तथा हंसना- आहे भरना, सिसकना, रोना, जम्हाई लेना तथा हंसना ये सब गहरी सांस क्रिया के ही अलग-अलग रूप है, जो भावावेगी स्थितियों के साथ संबंध रखते हैं।
- खर्राटे लेना- खर्राटे लेना नींद के दौरान जब गले की पेशियां शिथिल हो जाती है तथा कोमल तालू के ढीले ऊतक एवं काकलक आंशिक रूप से ऊपरी वायुमार्ग को बंद कर देते हैं। इसके परिणामस्वरूप खर्राटे आने लगते हैं।
- हिचकी- हिचकी डायाफ्राम में अचानक होने वाली अनैच्छिक ऐंठन को हिचकी कहते हैं। यह अक्सर श्वसन क्रिया के सामान्य पेटर्न में गड़बड़ी होने से पैदा होती है।
जंतुओं में श्वसन
गाय, भैंस, कुत्ते, और बिल्ली जैसे जीवों में श्वसन अंग और श्वसन प्रक्रम मानव के समान ही होते है।
कॉकरोच:- कीटों में गैस के विनिमय के लिए वायु नलियों का जाल बिछा होता है।
केंचुआ:- केंचुए में गैसों का विनिमय उसकी आर्द्र त्वचा के माध्यम से होता है।
मछली:- मछलियों में क्लोम या गिल का प्रयोग करते है।
पादप:- पादप में प्रत्येक अंग वायु से स्वतंत्र रूप से ऑक्सीजन ग्रहण करके कार्बन डाइऑक्साइड को निर्मुक्त करते है।
ऑक्सीय श्वसन:-
ऑक्सीय श्वसन में आक्सीजन की उपस्थिति अनिवार्य है तथा इसमें भोजन का पूर्ण आक्सीकरण होता है। इस क्रिया के अन्त में पानी, कार्बन डाई-आक्साइड तथा ऊष्मीय ऊर्जा का निर्माण होता है। एक ग्राम मोल ग्लूकोज के आक्सीकरण से ६७४ किलो कैलोरी ऊर्जा मुक्त होती है। जिन जीवधारियों में यह श्वसन पाया जाता है उन्हें एरोब्स कहते हैं।
ग्लाइकोलिसिस ऑक्सीय श्वसन की प्रथम अवस्था है जो कोशिका द्रव में होती है। इस क्रिया में ग्लूकोज का आंशिक आक्सीकरण होता है, फलस्वरूप १ अणु ग्लूकोज से पाइरूविक अम्ल के २ अणु बनते हैं तथा कुछ ऊर्जा मुक्त होती है। यह क्रिया कई चरणों में होती है एवं प्रत्येक चरण में एक विशिष्ठ इन्जाइम उत्प्रेरक का कार्य करता है। ग्लाइकोसिस के विभिन्न चरणों का पता एम्बडेन, मेयरहॉफ एवं पर्नास नामक तीन वैज्ञानिकों ने लगाया। इसलिए श्वसन की इस अवस्था को इन तीनों वैज्ञानिकों के नाम के आधार पर इएमपी पाथवे भी कहते हैं।
इसमें ग्लूकोज में संचित ऊर्जा का ४ प्रतिशत भाग मुक्त होकर एनएडीएच (NADH2) में चली जाती है तथा शेष ९६ प्रतिशत ऊर्जा पाइरूविक अम्ल में संचित हो जाती है।
ग्लूकोज + 2NAD+ + 2Pi + 2ADP → 2 पाइरूवेट + 2NADH + 2ATP + 2H+ + 2H2O
ग्लाइकोलिसिस के पहले पाँच चरण में ६ कार्बन विशिष्ट ग्लूकोज का अणु ऊर्जा के प्रयोग से तीन कार्बन वाले अणु में विघटित होता है।
NCERT SOLUTIONS
प्रश्न (पृष्ठ संख्या 124-126)
प्रश्न 1 कोई धावक दौड़ समाप्त होने पार सामने से अधिक तेजि से गहरी साँसें क्यों लेता हैं?
उत्तर- धावक कप दौड़ाने के लिए, अपनानी ऊर्जाका बहुत उपयोग करना पड़ता हैं | वह ऊर्जा ग्लूकोज के टूटने से आती है जो ऊर्जा का त्वरित स्रोत हैं ग्लूकोज के टूटने केके लिए अतिरिक्त ऑक्सीजन कई आवश्यकता होती हैं | धावक अधिक तेजी से गहरी साँसे इसलिए लेता हैं | क्योंकि उसे अपनी मांसपेशियों की कोशिकाओं में ऑक्सीजन कई आपूर्ति करने कई जरूरत पड़ती हैं |
प्रश्न 2 वातावीय और अवायवीय श्वसन के बीच समानताएं और अंतर बताइए?
उत्तर- वायावीय और अवायवीय श्वसन में समानता इस प्रकार हैं –
- वायवीय और आवायावीय श्वसन दोनों में ही भोजन ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए टूट जाता हैं |
- वायवीय और अवायवीय श्वसन दोनों में ही कार्बन डाईऑक्साइड उत्पन्न होती हैं
वायवीय और आवायावीय श्वसन में अंतर इस प्रकार हैं –
वायवीय :-
- वायवीय श्वसन में ग्लूकोज के ऑक्सीकरण के लिए ऑक्सीजन का प्रयोग होता हैं |
- वायवीय श्वसन में ग्लूकोज के एक अणु के ऑक्सीकरण से 38 ए.टी.पी. अणु बनाते हैं |
- वायवीय श्वसन में केवल आरंभिक चरण कोशिकाद्र्व्य में होते हैं, लेकिन अधिकार माईटोकॉनिड़या में होते हैं |
- वायवीय श्वसन में अंतिम उत्पाद कार्बन डाईऑक्साइड, पानी तथा ऊर्जा हैं |
अवायवीय :-
- अवायवीय श्वसन में ऑक्सीजन प्रयुक्त नहीं होती |
- अवायवीय श्वसन में ग्लूकोज के एक अणु के ऑक्सीकरण से केवल 2 ए. टी. पी. बनाते हैं |
- अवायवीय श्वसन में केवल कोशिकाद्र्व्य में होता हैं |
- अवायवीय श्वसन में अतिंम उत्पाद कार्बन डाईऑक्साइड, एथेनॉल या लैक्टिक अम्ल है और थोड़ी सी ऊर्जा भी उत्सर्जित होती हैं |
प्रश्न 3 जब हम अत्यधिक धुल भरी वायु में साँस लेते है, तो हमें छींक क्यों आ जाती हैं?
उत्तर- छींकने से साँस की हवा से विदेशी कणों का निष्कासन होता हैं, जिससे केवल स्वच्छ हवा ही हमारे अन्दर प्रवेश करती हैं| ऐसा आमतौर पर ऊपरी श्वसन के मार्ग में जलन के कारण होता हैं और वे हमारे नाक गुहा में फंसा जाते हैं धुँआ, धूल, पराग, आदि कुछ अवांछित कण हैं जो छींकने का कारण होते हैं |
प्रश्न 4 तीन परख्नालियाँ लीजिए| प्रत्येक को 3/4 भाग तक जल से भर लीजिए | इन्हें A, B तथा C द्वारा चिहिन्त कीजिए | परखनली A में एक घोंघा रखिए | परखनली B में कोई जलीय पादप रखिए और C में एक घोंघा और पादप दोनों को रखिए । किस परखनली में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता सबसे अधिक होगी?
उत्तर- परखनली A में सबसे अधिक कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा होगी क्योंकि उसमें केवल घोंघा है । घोंघा ऑक्सीजन ग्रहण करता है और कार्बन डाइऑक्साइड उत्पन्न करता है। परखनली B में जलीय पादप है जो कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण कर अपना भोजन बनाता है और ऑक्सीजन उत्पन्न करता है, इसलिए परखनली में ऑक्सीजन की अधिक मात्रा होगी। परखनली C में जलीय पादप और घोंघा, दोनों ही है। घोंघा कार्बन डाइऑक्साइड उत्पन्न करता है और पादप उस कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण कर ऑक्सीजन उत्पन्न करता है। इसलिए सबसे ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड परखनली A में होगी।
प्रश्न 5 सही उत्तर पर (सही) का निशान लगाएं |
- तिलचट्टों के शरीर में वायु प्रवेश करती हैं, उनके
- फेफड़ों द्वारा
- क्लोमो द्वारा
- स्वास रंध्रों द्वारा
- त्वचा द्वारा
2. अत्यधिक व्यायाम करते समय हमारी टांगों में जिस पदार्थ के संचयन एंठन होती हैं, वह हैं
- कार्बन डाईऑक्साइड
- लैक्टिक अम्ल
- अल्कोहल
- जल
3. किसी सामान्य व्यस्क व्यक्ति की विश्राम अवस्था में औसत स्वसन दर होती हैं |
- 9-12 प्रति मिनट
- 15-18 प्रति मिनट
- 21-24 प्रति मिनट
- 30-33 प्रति मिनट
4. उच्छ्सन के समय, पसलियाँ
- बाहर की और गति करती है
- नीचे की और गति करती हैं
- ऊपर की और गति करती हैं
- बिलकुल गति नहीं करती हैं
उत्तर-
c. स्वास रंध्रों द्वारा |
b. लैक्टिक अम्ल |
b. 15-18 प्रति मिनट |
b. नीचे की और गति करती है |
प्रश्न 6 कॉलम A में दी गए कॉलम B के साथ मिलान कीजिए-
कॉलम A | कॉलम B |
(क) यीस्ट(ख) डायाफ्राम (मध्यपट)(ग) त्वचा(घ) पत्तियाँ(च) मछली(छ) मेंढक | (i) केंचुआ(ii) क्लोम(ii) ऐल्कोहॉल(Iv) वक्ष-गुहा(V) रंध्र(Vi) फेफड़े और त्वचा(Vii) श्वासप्रणाल (वातक) |
उत्तर:
कॉलम A | कॉलम B |
(क) यीस्ट(ख) डायाफ्राम (मध्यपट)(ग) त्वचा(घ) पत्तियाँ(च) मछली(छ) मेंढक | (ii) ऐल्कोहॉल(iv) वक्ष-गुहा(i) केंचुआ(v) रंध्र(ii) क्लोम(vi) फेफड़े और त्वचा |
प्रश्न 7 बताइए कि निमालिखित वक्तव्य ‘सत्य’ हैं अथवा ‘असत्य’-
- अत्यधिक व्यायाम करते समय शक्ति की श्वसन दर धीमी हो जाती हैं |
- पादपों में प्रकाश संश्लेष्ण केवल दिन में जबकि श्वसन केवल रात्रि में होता हैं |
- मेंढक अपनी त्वचा के अतिरिक्त फेफड़ों से भी श्वसन करते हैं |
- मछलियों में श्वसन के समय के लिए फेफड़े होते हैं |
- अतं: श्वसन के समय वक्ष – गुहों का आयतन बढ़ जाता हैं |
उत्तर-
- असत्य
- असत्य
- सत्य
- असत्य
- सत्य
प्रश्न 8 दी गई पहेली के प्रतेक वर्ग में जीवों के श्वसन से संबधित हिंदी वर्णाक्षर अथवा संयुक्ताक्षर दिए गए हैं | इसको मिलाकर जीवों तथा उनके श्वसन अंगों से संबधित शब्द बनाए जा सकते हैं | शब्द वर्गी के जाल में किसी भी दिशा में, ऊपर, नीचे अथवा भी कारण में पाए जा सकते हैं | श्वसन तंत्र तथा जीवों के नाम खोजिए |
- कीटों की वायु नालियां
- वक्ष – गुहा को घेरों हुए हड्डियों की संरचना
- वक्ष – गुहा का पेशीय तल
- पत्ती की सतह पार सूक्ष्म छिद्र
- कीट के शरीर के पार्श्व भागों के छोटे छिद्र
- मनुष्य के श्वसन अंग
- वे छोटे छिद्र जिनसे हम साँस भीतर लेते करते हैं |
उत्तर-
- कीटों की वायु नालियाँ – श्वसन
- वक्ष – गुहा को घेरे हुए हड्डियों की संरचना – पसलियाँ
- वक्ष – गुहा का पेशीय तल – डायाफ्राम
- पत्ती की सतह पार सूक्ष्म छिद्र – रंध्र
- कीट के शरीर के पार्श्व भागों छिद्र – श्वसन रंध्र
- मनुष्यों के श्वसन अंग – फेफड़े
- वे छिद्र जिनसे हम साँस भीतर लेते करते हैं – नासा द्वार
- एक अवायवीय जीव – यीस्ट
- श्वसन तंत्र वाला एक जीव – तिलचट्टा
प्रश्न 9 पर्वतारोही अपने साथ ऑक्सीजन का सिलेंडर लि जाते हैं, क्योंकि
- 5Km से अधिक ऊचाई पर वायु नहीं होती हैं |
- वहाँ उपलब्ध वायु की मात्रा भूतल पार उपलब्ध वायु की मात्रा से काम होती हैं |
- वहां वायु का ताप भूतल के ताप से आधिक होता हैं |
- पर्वत पर वायुदाब बोतल की अप्रेक्षा अधिक होता हैं |
उत्तर- b वहाँ उपलब्ध वायु की मात्रा भूतल पार उपलब्ध वायु की मात्रा से काम होती हैं |